2 Dec 2015

गुरु ही सबकुछ होते है।

निश्चिंत, निर्द्वन्द, निर्भय

गुरु ही मेरी आस्था

गुरु ही मेरा भरोसा


जब आपके मन में यह भावना आ जाती है कि मैं जैसा भी हूं अपने आपको आपके सुपूर्द करता हूं। मैं अपने आपको पूर्ण रूप से समर्पित कर रहा हूं। यह स्थिति आस्था की स्थिति है, यही स्थिति गुरु तत्व, गुरु ज्ञान को प्राप्त करने की स्थिति है।

एक सुन्दर सी कथा आती है, एक राजा को ज्ञान प्राप्ति का बड़ा ही शौक था। नई-नई विद्याएं सीखने की उसकी इच्छा थी। एक बार उसके मन में वेदों की पूर्ण जानकारी प्राप्त करने की इच्छा जाग्रत हुई। उसने अपने मंत्रियों को अपनी इस इच्छा के बारे में बताया और इस कार्य हेतु उनसे उसके लिए व्यवस्था करने को कहा, मंत्रियों ने विचार-विर्मश करके दूसरे राज्य से वेदों के प्रकाण्ड पंडित एक आचार्य को बुलाया और उन्हें कहा कि आप हमारे राजा को नित्य-प्रति वेद, शास्त्रों का ज्ञान कराईये।

राजा भी नित्य प्रति आचार्य जी से वेदों का ज्ञान प्राप्त करता रहा। आचार्य जी राजा को एक-एक कर वेद श्लोक पढ़ाते जा रहे थे, अभ्यास करा रहे थे। उसकी मीमांसा भी समझा रहे थे। आचार्य बड़ी मेहनत कर रहे थे लेकिन राजा को वह शिक्षा पूर्ण रूप से प्राप्त नहीं हो रही थी। एक दिन राजा ने बैठे-बैठे विचार किया कि – मैं इतनी मेहनत कर रहा हूं और आचार्य जी भी, जो इतने ज्ञानी, जानकार, योग्य, तपस्वी व्यक्ति हैं और लगातार मेहनत कर रहे हैं, तो फिर मुझे ज्ञान क्यों प्राप्त नहीं हो रहा है? ऐसी अवस्था कुछ दिनों तक चलती रही, आखिर एक दिन उनसे रहा नहीं गया और उन्होंने आचार्य जी से ही प्रश्न किया।

हे गुरुवर! क्षमा करें, मैं कई महीनों से आपसे शिक्षा ग्रहण कर रहा हूं पर मुझे इसका कोई लाभ नहीं हो रहा है? ऐसा क्यों है?

आचार्य ने शांत स्वर में कहा कि – इसका कारण बहुत सीधा है।

राजन ने कहा कि – यदि कारण इतना सीधा है तो मुझे विस्तार से बताईये, मैं पूरा मन लगा रहा हूं लेकिन मुझे शिक्षा और ज्ञान क्यों प्राप्त नहीं हो रहा है?

आचार्य ने कहा कि – राजन् बात बहुत छोटी है और उसके मूल में बात यह है कि आप अपने आपको ‘ बड़ा ’ समझते हैं और जाने अनजाने में अहंकार से भरे हुए हैं। आप पद और प्रतिष्ठा में बड़े हैं, इस पूरे राज्य के राजा हैं लेकिन ज्ञान प्राप्त करते समय एक बात को आप भूल गये कि – आपका और मेरा सम्बन्ध गुरु और शिष्य का सम्बन्ध है। ज्ञान प्राप्ति के लिये यह सम्बन्ध आवश्यक है।

गुरु होने के नाते मेरा स्थान आप से उच्च होना चाहिए और आप मेरे आसन से नीचे आसन लगाकर बैठें लेकिन अभी तक यह हो रहा है कि आप ऊंचे आसन पर बैठ रहे हैं, अहंकार के आसन पर बैठे हैं इसलिये आपको न तो कोई शिक्षा प्राप्त हो रही है और न ही ज्ञान प्राप्त हो रहा है।

जिस दिन आप नम्र और अहंकार से रहित होकर मुझे ऊंचे आसन पर स्थापित करेंगे और आप विनम्र होकर मुझसे नीचे बैठकर शिक्षा ग्रहण करेंगे तो संसार में ऐसा कोई कारण नहीं है कि आपको ज्ञान प्राप्त न हो।
गुरु ने कहा कि – राजन् एक बात और याद रखना ज्ञान प्राप्ति के लिये गुरु की योग्यता पर केवल विश्वास करने से ज्ञान प्राप्त नहीं होता है। जिस दिन गुरु के प्रति शिष्य के मन में आस्था एवं भरोसा जाग्रत हो जाता है उस दिन पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो जाता है। अब तक आपको मेरे ऊपर केवल विश्वास था, अब आप इस विश्वास को आगे बढ़ाकर आस्था के संसार में प्रवेश करें। आस्था ही सम्पूर्ण ज्ञान का, सम्पूर्ण आत्मज्ञान का आधार है।



गुरु शिष्य सम्बन्ध –

गुरु शिष्य सम्बन्ध के बारे में हजारों-लाखों ग्रंथों का सारभूत तथ्य यही है कि गुरु के बिना ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता है और ज्ञान, आत्मज्ञान के इच्छुक प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन में आत्म ज्ञानी गुरु की आवश्यकता रहती है। इसलिये गुरु को धारण किया जाता है।
यदि गुरु जीवन में इतने आवश्यक हैं तो कुछ प्रश्न उठने स्वभाविक हैं –

क्या प्रत्येक व्यक्ति का गुरु अलग-अलग होता है?

क्या प्रत्येक ज्ञानी व्यक्ति गुरु हो सकता है?

क्या गुरु का विद्यावान होना आवश्यक है?

साधक अपने गुरु पर कितना विश्वास करें?

साधक अपने गुरु से कितनी आशा रखें, कितनी अपेक्षा रखें?

क्या गुरु के प्रति मन में प्रीत-प्रेम का भाव हो?

क्या वह अपने गुरु में पूर्ण आस्था रखें?



यहां पर दो प्रश्न मुख्य रूप से आयें हैं पहला प्रश्न है – ‘विश्वास’ और दूसरा प्रश्न है – ‘आस्था’। क्या गुरु के प्रति विश्वास हो ना चाहिए अथवा आस्था?
सामान्य रूप से विश्वास और आस्था एक जैसे दिखाई देते हैं लेकिन वास्तव में इन दोनों में बहुत बड़ा अंतर है।



विश्वास क्या है?

विश्वास आपके मन का एक भाव है। जिसके माध्यम से आप संसार के कई प्राणियों से अपने रिश्ते-नाते निभाते हैं। आपके अपने घर-परिवार, भाई-बहन, दोस्त-रिश्तेदार, मित्रों, सहयोगियों से विश्वास के आधार पर सम्बन्ध चलते रहते हैं। इसलिये कहा गया है कि इस जगत में आपसी सम्बन्धों का आधार विश्वास है। इसलिये जब आप कहते हैं कि मैं अमुक-अमुक पर विश्वास करता हूं तो इसके साथ-साथ यह भी इच्छा रखते हैं कि जो आपका विचार है, आपकी सोच है, सामने वाला भी उसी के अनुसार कार्य करेगा।
विश्वास का बंधन बड़ा ही कच्चा बंधन होता है क्योंकि विश्वास को आपने अपनी मनोवृत्ति, भावनाओं के अनुसार बनाया है।

विश्वास एवं आस्था-भरोसे को हम चर्चा का विषय बनाएं इससे पूर्व हमें इनके भीतर के भावों को समझ लेना चाहिए। विश्वास को हम एक ऐसी व्यवस्था मान सकते हैं जिसमें उसके दोनों पक्ष विश्वास करने वाला एवं जिसके प्रति विश्वास किया जाता है अतः विश्वस्त, इन दोनों के बीच सम्बन्ध अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है अतः दोनों की कुछ अपेक्षाएं हैं एवं दोनों की कुछ जिम्मेदारियां एवं दायित्व हैं, जब ऐसी अवस्था में एक पक्ष अपनी जिम्मेदारी या दाायित्व से भटक जाता है तो दूसरे पक्ष का विश्वास टूट जाता है। जबकि आस्था के बारे में हमें यह समझ लेना चाहिए कि हमारी आस्था होती है कि हम अमुक कार्य, पूजा, उपवास, साधना करेंगे तो हमारा कार्य पूर्ण होगा लेकिन सामने से दूसरा पक्षकार स्वयंमेव उपस्थित नहीं होता है और न ही यह वादा करता है कि हमें उक्त कार्यों में चाहा गया फल मिलेगा ही यदि हमें चाहा गया फल मिल जाता है तो हमारी आस्था और ज्यादा दृढ़ हो जाती है यदि नहीं मिले तो हम अपने उपास्य, आराध्य से लड़ते-झगड़ते नहीं हैं अपितु अपने प्रयासों को जांचते है, साधते है और पहले से ज्यादा सजगता के साथ एक और प्रयास करते हैं।

कहने का तात्पर्य है कि विश्वास में दूसरे की गलती निकालते हुए हम अपने को बचाते हैं तो आस्था (भरोसे) में अपनी गलती ढू़ंढने का प्रयास करते हुए आगे बढ़ने का प्रयास करते हैं।

अब प्रश्न उठता है कि क्या गुरु और शिष्य का सम्बन्ध विश्वास पर आधारित होना चाहिए या आस्था पर। शिष्य हर समय गुरु पर विश्वास करें और गुरु भी शिष्य पर विश्वास करें।

मेरा विचार है कि गुरु शिष्य के सम्बन्ध को विश्वास के तराजू पर नहीं तौला जा सकता है। यदि आप गुरु को अपने विश्वास की विषय-वस्तु मानते हैं तो समझ लीजिये आपने गुरु को अपने विचारों की एक सीमा में कैद कर लिया है। विश्वास एक बंधन का नाम है, जहां आपको स्वयं के विचारों के अनुसार थोड़ी तसल्ली मिल जाती है, थोड़ा दिलासा मिल जाता है लेकिन इस स्थिति में कभी-कभी एक विचित्र स्थिति भी हो जाती है। यदि आपके विश्वास के अनुसार कार्य नहीं हुआ तो आप का विश्वास ही हिल जाता है और धीरे-धीरे टूट जाता है।
तो विश्वास से ऊपर क्या स्थिति है जो गुरु-शिष्य सम्बन्धों को बनाती है। यह स्थिति है आस्था-भरोसा।

आस्था का शाब्दिक अर्थ है –

मन का वह भाव जिसमें आशा भी हो, विश्वास भी हो।
मन का वह भाव जिसमें आपकी संतुष्टि हो।
मन का वह भाव जिसमें असंभव से असंभव बात की पूर्ति की भी संभावना हो।

आस्था आपके भीतर का एक विशेष गुण है और यह आस्था किसी दृश्य, वस्तु, स्थान पर निर्भर नहीं करती है। जब आप कहते हैं कि अमुक व्यक्ति पर, अमुक स्थान पर, अमुक मूर्ति में मेरी आस्था है, मैं भरोसा करता हूं तो इसका सीधा सा अर्थ है कि आप यह स्पष्ट कह रहे हैं कि – मुझे कोई लाभ प्राप्त हो या न हो, मेरी आप पर आस्था है।

विश्वास मन का भाव है और आस्था मन से परे उच्चतम भावनाओं का स्वरूप है। जिसके लिये मन को विवश नहीं होना पड़ता है। मनुष्य का मन आस्था के अधीन रह सकता है। जहां आस्था है उसी के अनुसार मन को कार्य करना पड़ेगा।

आस्था का तात्पर्य है, आपने स्वयं को किसी भी प्रकार की पसंद, नापसंद से अपने आपको ऊपर उठा दिया है।


आस्था का मूल भाव है –

‘अब सौंप दिया इस जीवन का सब भार तुम्हारे हाथों में। है जीत तुम्हारे हाथों में और हार तुम्हारे हाथों में।’
अर्थात् मैंने अपने आपको जीत-हार से ऊपर उठा लिया है। कोई भी स्थिति आये मुझे अन्तर नहीं पड़ता है क्योंकि आप पर मेरी आस्था है।
आस्था के लिये क्या आवश्यक है – आस्था के लिये सबसे पहले अपने स्वयं के अस्तित्व को, स्वयं के व्यक्तित्व को, स्वयं के ‘मैं’ को स्वयं के ‘अहं’ को भूलना पड़ता है।



आपका व्यक्तित्व क्या है?

आप एक व्यक्ति हैं, आप अपने आपको ‘मैं’ कहते हैं। वह एक संयोग से बना है।आपने अपने जीवन में किन-किन मुश्किलों का सामना किया, किन-किन कठिनाईयोंको पार किया, किन-किन स्थितियोंको जीया? इन सबसे आपका व्यक्तित्व निरन्तर विकास की ओर अग्रसर हो रहा है। यह जीवन आप पर जिस प्रकार से आघात करता है, उसी के अनुसार आपका व्यक्तित्व बदलता रहता है। उसी के अनुसार आप कठोर बनते रहते हैं, क्रोधी बनते हैं, अहंकारी बनते हैं अथवा विनम्र बनते हैं, धनी बनते हैं अथवा निष्ठुर बनतेहैं। कई प्रकार की ठोकरें जो आपने जीवन में खाई हैं उनके अनुसार आपकी विचार-धारा निरन्तर बदलती जाती है और उसी विचार धारा के अनुसार आपका व्यक्तित्व भी बदलता जाता है।इसलिये जो आपका व्यक्तित्व बना हैउसमें आपने पूरे जीवन में जो क्रियाएं की हैं वे ही आपके व्यक्तित्व में दिखती हैं। यह व्यक्तित्व आपका बाह्य स्वरूप है लेकिन इसके भीतर एक ओर व्यक्तित्व है। इस व्यक्तित्वमें उतरने से आप गुरु को समझ सकते हैं, जान सकते हैं।अपने बाह्य व्यक्तित्व से गुरु को जानने, समझने का प्रयास करना एक मूर्खता है।आपको हजारों चोटें मिलीं तो आपने उसी के अनुसार संसार में गुरु के बारे में समझना प्रारम्भ करदिया। यह एक बहुत बड़ी भूल है।गुरु को केवल और केवल आन्तरिक व्यक्तित्व से ही समझा जा सकता है।आपके बाह्य व्यक्तित्व में विश्वास-अविश्वास का मंडल फैला हुआ है।आपका बाह्य व्यक्तित्व जो देखता है, समझता हैउसी के अनुसार संसार में तौल-माप प्रारम्भ कर देता है। इसीलिये गुरु को जानने, समझने में भूल हो जाती है।आपके आन्तरिक व्यक्तित्व में विश्वास, अविश्वास से परे, एक विशेष तत्व है और वह तत्वहै – ‘आस्था’।इस आस्था के लिये अपने स्वयं के अस्तित्व, अपने अहंकार को तोड़ना पड़ता है, भूलना पड़ता है। अपने ‘मैं’को खण्ड-खण्ड करना पड़ता है। कुछ पलों के लिये अपने आपको मिटाना पड़ता है। तब आस्था और भरोसे का अमृत कलश खुलता है, फूटता है। यदि आप गुरु की वास्तविक अनुभूति, उपस्थिति चाहते हैं तो अपने आपको अर्थात् अपने बाह्य व्यक्तित्व को भूलाकर समर्पण की क्रिया करनी पड़ेगी।जहां समर्पण है, वहीं पूरा भरोसा है, समर्पण प्रेम का उच्चतम सोपान है। समर्पण अच्छा-बुराकुछ नहीं देखता, समर्पण में तो व्यक्ति सबसे पहलेअपने आपको भूला देता है। इसलिये समर्पण को आस्था का प्रवेश द्वार कहा गया है। आप पूजा-प्रार्थना,साधना, ध्यान, जप-तप, सब करते हैं और जब आप यह कहते हैं कि मेरा विश्वास है इसलियेमैं करता हूं तो वास्तव में पूजा, प्रार्थना, साधना नहीं कर रहे हैं। क्योंकिविश्वास की सीढ़ियों में कुछ लेन-देने की भावना रहती है।आपको यह आशा होती है कि मैं यह क्रिया कर रहा हूं इससे मुझे कुछ प्राप्त होगा और जब वह स्थिति प्राप्त नहीं होतीहै तब आपका विश्वास धीरे-धीरेसंदेह में बदलने लगता है और यही संदेह धीरे-धीरे अविश्वास में बदल सकता है।लेकिन जिस दिन आपने पूजा, प्रार्थना, ध्यान, साधना पूरी आस्था के साथ सम्पन्न करनी प्रारम्भ कर दी उस दिन आप पूरे आन्तरिक प्रेम के साथ गुरु को समर्पित हो जाते हो। तब आप स्वयं अपने आपको गुरु को,ईश्वर को सौंप देते हो। जब आपके मन में यह भावना आ जाती है किमैं जैसा भी हूं अपने आपको आपके सुपूर्दकरता हूं। मैं अपने आपको पूर्ण रूप से समर्पित कर रहा हूं। यह स्थिति आस्था की स्थिति है, यही स्थिति गुरु तत्व, गुरु ज्ञान को प्राप्त करने की स्थिति है। आपके व्यक्तित्व में और आपके जीवन में सार रूप से क्या है? कटु सत्य यह है कि –आपका जीवन केवल और केवल अनुभवों का एक भण्डार है। जैसे-जैसे इस जीवन में आपके अनुभव हुए हैं, उसी प्रकार से आपकी बुद्धि का, आपकी चेतना का, आपकी सोचका विकास हुआ है। अब ऐसी स्थिति में कुछ नया कैसे सिखाया जा सकता है? आप बार-बार अनुभवों से ही सीखना चाहते हो, भूतकाल की बातों से ही, अनुभव से ही,अपनी सोच से ही सीखना चाहते हो तो कुछ भी सीख नहीं सकते हो। तब शिष्य बन नहीं सकते। शिष्य बनने के लिये अपनी पुरानी सोच को, अपनी पुरानी चोटों को, सांसारिक अनुभवों को भूलाकर, हटाकर अलग प्रकार से चिन्तन करना पड़ेगा। इस चिन्तन का नाम ही आस्था है।विश्वास जगत में आपसी व्यवहार का नाम है और आस्था उसविश्वास से परे आन्तरिक जगत, आन्तरिक भाव के उद्घाटन का नाम है। आवश्यकता है गुरु को भीतर स्थापित करने की – जब आप भरोसे की बातकरते हैं तो इसका सीधा सा अर्थ है, आप गुरु को अपने भीतर प्रवेश करा दें। इस प्रवेश के लिये आपको अपने आपको पूरी तरह से खोल देना पड़ेगा। तभी गुरु तत्व, गुरु भाव आपके भीतर भेद कर प्रवेश कर सकते हैं और तब ही ऊर्जारूप में गुरु आपके भीतर स्थापित हो सकते हैं।इस स्थिति में कुछ भी हो सकता है क्योंकि आपने अपनेमानस में बड़ी-बड़ी दीवारें स्थापित कर रखी हैं, इस जगत में कई बार ऐसा भी हुआ है कि आपकी आशाओं और उम्मीदोंके अनुसार कार्य नहीं हुआ, बार-बार आपको चोटें भी लगी हैं इसीलिये आप डर से भर गये हैं इसीलिये अपने मन के भीतर किसी को प्रवेश करने ही नहीं देते हैं। अपने मन के भीतर गुरु को स्थापित करने से भी डरते हैं।लेकिन जब यह स्थिति बन जाये कि आपकी भावनाएं और अधिक संवेदनशील होजाएं और आप विश्वास से ऊपर उठ जाएं तो आपके भीतर समर्पण का भाव आ सकता है इसीलियेआस्था के लिये पूर्ण समर्पण आवश्यक है और जिस दिन आप यह कहते हैंकि मैं गुरु पर पूर्ण भरोसा रखता हूं तो इसका सीधा अर्थ है, आपने अपनेमन के भीतर की, डर की, सारी दीवारें तोड़ दी हैं आपने अपने-आपको पूर्ण रूप से गुरु को सौंप दिया है। जब आपने अपने आपको सौंप दिया है तो क्या होगा? गुरु आपकी इच्छाओं, आशाओं के अनुसार कार्य नहीं करेंगे। गुरु अपनीशक्ति के अनुसार, अपनी ऊर्जा के अनुसार आपके भीतर कार्य करेंगे। आस्था में गुरु की इच्छा शक्ति आपके रोम-रोम में प्रवाहित होने लगेगी।आस्था और आपकी ऊर्जा – गुरु और शिष्य का सम्बन्ध एक ऊर्जावान सम्बन्ध है। आपका अनुभव एक सामान्य धरातल पर स्थित है। अब इसे उच्चतम धरातल पर ले जाना है।जैसे ऊपर चढ़ने के लिये ज्यादा ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है उसी प्रकार अपने मानस को ऊंचे धरातल पर ले जाने के लिये एक विशेष तीव्र ऊर्जा शक्तिकी आवश्यकता होती है। इस ऊर्जा शक्ति को इस व्यक्तित्व को गुरु कहा गया है।गुरु आपके व्यक्तित्व के उस आन्तरिक भाव को स्पर्श करते हैं जहां अब तक कोई स्पर्श नहीं कर सका है और यह स्पर्श कब संभव है जब आप विश्वास के भाव से ऊपर उठकर आस्था के भाव में प्रवेश कर जाते हैं। इसके लिये बहुत बड़ी छलांग लगानी पड़ती है, बहुत बड़ी कोशिश करनी पड़ती है और यहछलांग आपके अब तक के अनुभव के आधार पर नहीं लग सकती है। अब तक के अनुभवके आधार पर तो केवलऔर केवल विश्वास आ सकता है। विश्वास के ऊपर अपने आन्तरिक व्यक्तित्व से एक बड़ी छलांग लगानी पड़ती है। एक नया पवित्रतम् सम्बन्धस्थापित करना पड़ताहै। अपनी ऊर्जा को पूरी तरह से झौंक देना पड़ता है। यह इसलिये आवश्यक है कियदि आपको अपने आनन्दमय कोष में उतरना है, आनन्द केगहरे सागर में अपने आपको उतारना है तो ताकत के साथ एक बड़ी छलांग लगानी है और यह बड़ीछलांग एक गहरी आस्था से ही संभव है।

गुरु में ही आस्था-भरोसा क्यों?
गुरु में आस्था होने की दो स्थितियां हैं-

पहली स्थितिमें गुरु की उपस्थिति में गुरु के निकट होने पर आपमें बदलाव आने लगता है। आप अपने आपको कुछ क्षणों के लिये खो ही देते हैं। आप भावमय, आनन्दमय कोष में चले जाते हैं। आप अपने भीतर उतर जाते हैं।

दूसरी स्थितिमें और भी अधिक विशेष प्रकार की स्थिति का निर्माण होता है। इस आस्था में आप अपने आपमें बेपरवाह हो जाते हैं, निश्चिन्त हो जाते हैं इस विचार को ही छोड़ देते हैंकि आपके साथ क्या होगा? जब इस प्रकार का विचार आये तो इसका सीधा अर्थ है आपने अपने आपको गुरु के प्रति भाव रूप में समर्पित कर दिया है। आपका शरीर कार्य कर रहा है, आप आपकी नौकरी, व्यापार कर रहे हैं, अपने संसार में चल रहे हैं, घर-परिवार पाल रहे हैं लेकिन इन सब केउपरान्त आप बेपरवाह हैं, निश्चिन्त हैं।शरीर की गति बाह्य तौर पर वैसी की वैसी ही रहेगी लेकिन मन की गति बदल जायेगी। समर्पण से ही आपके भीतर एक रूपान्तरणकी क्रिया प्रारम्भ हो जाती है।

प्रथम स्थिति में गुरु एक विशेष चेहरा, शरीर होता है, हाव-भाव होता है, वचन होता है लेकिन जैसे-जैसे आप समर्पण के माध्यम से आस्था के आनन्द सागर में आगे बढ़ते हैं वैसे-वैसे गुरु की मानसिक उपस्थिति को आधार बना लेते हैं। तब ही लम्बे समय तक आप गुरु के साथ पूर्ण रूप से एकाकार होकर अपने आपको रूपान्तरित कर देते हैं।




इसीलिये गुरु विश्वास का उपकरण नहीं, गुरु जानकारीका साधन नहीं, गुरुबौद्धिक ज्ञान का स्वरूप नहीं अपितुएक गहरे भरोसे का अमृत कलश है। जिसके लिये आपको एक जोरदार छलांग लगानी है। तब आप सारे बंधनों को तोड़कर इस संसार में जीते हुए भी अपने आपको नवीन जन्म दे सकते हैं, नवीन ऊर्जा से परिपूर्ण कर सकते हैं।बस अपने मन की गहराइयों से गुरु से अपना नाता जोड़ लें, गुुरु आपका विश्वास नहीं, विश्वास से ऊपर आस्था भरोसे का भाव है।आपका ही गुरु, आपकीही आस्था, आपका ही भरोसा, आपका ही आनन्द, सब कुछ आपका… बस!

                       आप एकाकार हो जाएं…








आदेश......