28 Dec 2019

मंगल दोष सम्पूर्ण विश्लेषण.



मांगलिक दोष क्या होता है और कैसे ग्रह इस दोष को समाप्त करते हैं?

मंगल दोष जो कि ना केवल भारत में बल्कि अब विदेशों में भी लोग इसे मान ने लगे हैं आज हम इसका पूर्ण रूप से विश्लेषण कर रहे हैं कि कब दोष होता है कब दोष समाप्त होता है। 'मांगलिक' यह शब्द सुनते ही विवाह का लड्डू किरकिरा नज़र आने लगता है। जिस के साथ विवाह होना है यदि उसकी कुंडली में यह दशा मौजूद हो तो वह जीवनसाथी नहीं जीवनघाती लगने लगता है।

लेकिन बहुत बार जैसा ऊपरी तौर पर नज़र आता है वैसा असल में नहीं होता। ज्योतिषशास्त्री भी कहते हैं कि सिर्फ मांगलिक दोष के कारक भाव में मंगल के होने से ही मांगलिक दोष प्रभावी नहीं हो जाता बल्कि उसे घातक अन्य परिस्थितियां भी बनाती हैं। यह हानिकारक तभी होता है जब मंगल निकृष्ट राशि का व पापी भाव का हो। कहने का तात्पर्य है कि मांगलिक मात्र कुंडली का दोष नहीं है बल्कि यह कुछ परिस्थितियों में विशेष शुभ योग भी बन जाता है।

मंगल क्या होता है?

सर्वार्थ चिन्तामणि, चमत्कार चिन्तामणि, देवकेरलम्, अगस्त्य संहिता, भावदीपिका जैसे अनेक ज्योतिष ग्रन्थों में मंगल के बारे में एक प्रशस्त श्लोक मिलता है।

लग्ने व्यये च पाताले, जामित्रे चाष्टमे कुजे।
भार्याभर्तृविनाशाय, भर्तुश्च स्त्रीविनाशनम्।।

अर्थात् जन्म कुण्डली के लग्न स्थान से प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम, द्वादश स्थान में मंगल हो तो ऐसी कुण्डली मंगलीक कहलाती है। पुरुष जातक की कुण्डली में यह स्थिति हो तो वह कुण्डली 'मौलिया मंगल' वाली कुण्डली कहलाती है तथा स्त्री जातक की कुण्डली में उपरोक्त ग्रह-स्थिति को 'चुनरी मंगल' वाली कुण्डली कहते हैं। इस श्लोक के अनुसार जिस पुरुष की कुण्डली में 'मौलिया मंगल' हो उसे 'चुनरी मंगल' वाली स्त्री के साथ विवाह करना चाहिए अन्यथा पति या पत्नी दोनों में से एक की मृत्यु हो जाती है।

यह श्लोक कुछ अतिश्योक्तिपूर्ण लगता है परन्तु कई बार इसकी अकाट्य सत्यता नव दम्पत्ति के वैवाहिक जीवन पर अमिट बदनुमा दाग लगाकर छोड़ जाती है। उस समय हमारे पास पश्चा ताप के सिवा हमारे पास कुछ नहीं रहता। ज्योतिष सूचनाओं व सम्भावनाओं का शास्त्र है। इसका सही समय पर जो उपयोग कर लेता है वह धन्य हो जाता है और सोचता है वह सोचता ही रह जाता है, उस समय सिवाय पछतावे के कुछ शेष नहीं रहता।


क्या चन्द्रमा से भी मंगल देखना चाहिए?

बहुत जगह यह प्रश्न (विवाद) उठ खड़ा होता है कि क्या लग्न कुण्डली की तरह 'चन्द्र कुण्डली' से भी मंगल का विचार करना चाहिए। क्योंकि उपरोक्त प्रसिद्ध श्लोक में लग्ने शब्द दिया हुआ है यहां चन्द्रमा का उल्लेख नहीं है। इस शंका के समाधान हेतु हमें परवर्ती दो सूत्र मिलते हैं।


लग्नेन्दुभ्यां विचारणीयम्।

अर्थात् जन्म लग्न से एवं जन्म के चन्द्रमा दोनों से मंगल की स्थिति पर विचार करना चाहिए और भी कहा है-यदि जन्म चक्र एवं जन्म समय का ज्ञान न भी हो तो नाम राशि से जन्म तारीख के ग्रहों को स्थापित करके अर्थात् चन्द्र कुंडली बनाकर मंगल की स्थिति पर विचार किया जा सकता है। इस बारे में स्पष्ट वचन मिलता है।


अज्ञातजन्मनां नृणां, नामभे परिकल्पना।
तेनैव चिन्तयेत्सर्व, राशिकूटादि जन्मवत ।।

परन्तु यदि एक जातक का जन्म चक्र मौजूद हो और दूसरे का न हो तो दोनों की परिकल्पना भी नाम राशि से ही करनी चाहिए। एक का जन्म से, दूसरे का नाम से मिलान नहीं करना चाहिए।

जन्मभं जन्मधिषण्येन, नामधिषण्येन नामभम्, व्यत्ययेन यदायोज्यं, दम्पत्योनिर्धनं ध्रुवम्।

अत: आज के युग में तात्कालिक समय में भी मंगलीक दोष की गणना संभव है। भौम पंचक दोष किसे कहते हैं? क्या शनि, राहु व अन्य क्रूर ग्रहों के कारण कुण्डली मंगलीक कहलाती है?

चन्द्राद् व्ययाष्टमे मदसुखे राहुः कुजार्की तथा।
कन्याचेद् वरनाशकृत वरवधूहानिः ध्रुवं जायते।।

मंगल, शनि, राहु, केतु, सूर्य ये पांच क्रूर होते हैं अतः उपरोक्त स्थानों में इनकी स्थिति व सप्तमेश की ६,८,१२ वें घर में स्थिति भी मंगलीक दोष को उत्पन्न करती है। यह भौम पंचक दोष कहलाता है।
द्वितीय भाव भी उपरोक्त ग्रहों से दूषित हो तो भी उसके दोष शमनादि पर विचार अभीष्ट है। विवाहार्थ द्रष्टव्य भावों में दूसरा, १२वां भाव का विशेष स्थान है। दूसरा कुटुम्ब वृद्धि से सम्बन्धित है. १२वां भाव शय्या सुख से। चतुर्थ भाव में मंगल, घर का सुख नष्ट करता है। सप्तम भाव जीवनसाथी का स्थान है, वहां पत्नी व पति के सुख को नष्ट करता है। लग्न भाव शारीरिक सुख है अतः अस्वस्थता भी दाम्पत्य सुख में बाधक है। अष्टम भाव गुदा व लिंग योनि का है अत: वहां रोगोत्पति की संभावना है। के सुख को नष्ट करता है। लग्न भाव शारीरिक सुख है अतः अस्वस्थता भी दाम्पत्य सुख में बाधक है। अष्टम भाव गुदा व लिंग योनि का है अत: वहां रोगोत्पति की संभावना है। के सुख को नष्ट करता है। लग्न भाव शारीरिक सुख है अतः अस्वस्थता भी दाम्पत्य सुख में बाधक है। अष्टम भाव गुदा व लिंग योनि का है अत: वहां रोगोत्पति की संभावना है।

१. लग्न में मंगल अपनी दृष्टि से १,४,७,८ भावों को प्रभावित करेगा। यदि दुष्ट है तो शरीर व गुप्तांग को बिगाड़ेगा। रति सुख में कमी करेगा। दाम्पत्य सुख बिगाड़ेगा।

२. इसी तरह सप्तमस्थ मंगल, पति, पिता,शरीर और कुटुम्ब सौख्य को प्रभावित करेगा। सप्तम में मंगल पत्नी के सुख को नष्ट करता है जब गृहणी (घर वाली) ही न रहे तो घर कैसा?

३. चतुर्थस्थ मंगल-सौख्य पति, पिता और लाभ को प्रभावित करेगा। चतुर्थ में मंगल घर का सुख नष्ट करता है।

४. लिंगमूल से गुदावधि अष्टम भाव होता है। अष्टमस्थ मंगल इन्द्रिय सुख, लाभ, आयु को व भाई बहनों को गलत ढंग से प्रभावित करेगा।

५. द्वादश भाव शयन सुख कहलाता है। शय्या का परमसुख कान्ता हैं। बारहवें मंगल शयन सुख की हानि करता है। धनस्थ मंगल-कुटुम्ब संतान, इन्द्रिय सुख, आवक व भाग्य को, एकमत से पिता को प्रभावित करेगा।

अत: इन स्थानों में मंगल की एवं अन्य क्रूर ग्रहों की स्थिति नेष्ट मानी गई है। खासकर अष्टमस्थ ग्रहों नूनं न स्त्रियां शोभना मतः (स्त्री जातक) अत: अष्टम और सप्तमस्थ मंगल का दोष तो बहुत प्रभावी है।
स्त्रियों की कामवासना का मंगल से विशेष संबंध है। यह रज है। मासिक धर्म की गड़बड़ियां प्रायः इसी से दूषित होती है। पुरुष की कामवासना का संबंध शुक्र (वीर्य) से है। मंगल रक्तवर्णीय है और शुक्र श्वेतवर्णीय है। इन दोनों के शुभ होने व समागम से ही संतान पुष्ट और वीर्यवान् होती है। अगर कुण्डली में किसी भी दृष्टि से मंगल व शुक्र का संबंध न हो तो संतानोत्पति दुष्कर है। विवाह का एक मुख्य लक्ष्य संतानोत्पति भी है। (ऋतु बराबर मंगल, रेतस् बराबर शुक्र) संतान के बिना स्त्री-पुरुष दोनों ही अपूर्ण व अधूरे रहते हैं।

ऋतु रेतो न पश्येत, रेतं न ऋतु स्तथा।
अप्रसूतो भवेज्जातः परिणीता बहुस्त्रियां।।

मंगल मकर में उच्च का होता है और शुक्र मीन में। संस्कृत में कामदेव का मकरध्वज नाम से संबोधित किया जाता है, और उसको मीन केतु भी कहा है जिसकी ध्वजा में मीन है। मीन व मकर दोनों जल के प्राणी हैं। कामदेव को भी जल तत्त्व प्रधान माना गया है। बसन्त पंचमी को प्रायः शुक्र जब अपनी मीन राशि में आता है तब इसका जन्म माना जाता है। फूलों में पराग का जन्म ही रजोदर्शन है। रजोदर्शन ही बसंत है जो कि जवानी का प्रतीक माना गया है।

कामदेव के पांच बाण हैं शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध। इन सबमें उस समय कन्या के कौमार्य की छटा निखरकर, बासन्ती बन जाती है जब कामोपभोग योग्य बनती है। मंगल रक्त विकास और रक्त की वृद्धि दोनों में सहायक है जैसी इसकी स्थिति हो। सप्तम भवन पति के कारण पत्नी, कामदेव व रतिक्रीड़ा आदि का विचार अत्यन्त होता है।

क्या द्वितीयस्थ मंगल को भी मंगल दोष में माना जाएगा?
जन्म कुण्डली में द्वितीय भाव दक्षिण नेत्र, धन, वाणी, वाक् चातुर्य एवं मारक स्थान का माना गया है। द्वितीय भावस्थ मंगल वाणी में दोष, कुटुम्ब में कलह कराता है। द्वितीय भाव में स्थिति मंगल की पूर्ण दृष्टि पंचम, अष्टम एवं नवम में भाव पर होती है। फलतः ऐसा मंगल सन्तति, स्वास्थ्य (आयु) एवं भाग्य में रुकावट डालता है कहा भी है।

भवेत्तस्य किं विद्यमाने कुटुम्बे, धने वा कुजे तस्य लब्धे धने किम्।
यथा त्रोटयेत् मर्कटः कण्ठहार पुनः सम्मुखं को भवेद्वादभग्नः।।


द्वितीय भाव में मंगल वाला कुटुम्बी क्या काम का?

क्योंकि उसके पास धन-वैभव होते हुए भी वह (जातक) अपने स्वयं का या कुटुम्ब का भला ठीक उसी तरह से नहीं कर सकता, जिस तरह से बन्दर अपने गले में पड़ी हुई बहुमूल्य मणियों के हार का सुख व उपयोग नहीं पहचान पाता? बन्दर तो उस मणिमाला को साधारण-सूत्र समझकर तोड़कर फेंक देगा। किसी को देगा भी नहीं। द्वितीय मंगल वाला व्यक्ति ठीक इसी प्रकार से प्रारब्ध से प्राप्त धन को नष्ट कर देता है तथा कुटुम्बीजनों से व्यर्थ का झगड़ा करता रहता है।
द्वितीय भावस्थ मंगल जीवन साथी के स्वास्थ्य को अव्यवस्थित करता है तथा परिजनों में विवाद उत्पन्न करता है। अतः द्वितीय स्थ मंगल वाले व्यक्ति से सावधानी अनिवार्य है। परन्तु मंगल दोष मेलापक में द्वितीयस्थ मंगल को स्थान नहीं दिया गया है, यह बात प्रबुद्ध पाठकों को भली-भांति जान लेनी चाहिए।
डबल व त्रिबल मंगली दोष क्या होता है? कैसे होता है?

प्राय: ज्योतिषी लोग कहते हैं कि यह कुण्डली तो डबल मांगलिक, त्रिबल मांगलिक है। मंगल डबल कैसे हो जाता है? यह कौन सी विधि (गणित) है? इसका समाधान इस प्रकार है।

१. जब किसी कुण्डली के 1/4/7/8 या 12वें भाव में मंगल हो तो वह कुण्डली मांगलिक कहलाती है। इसे हम (सिंगल) मांगलिक कह सकते हैं।

२. इन्हीं भावों में यदि मंगल अपनी नीच राशि में होकर बैठा हो तो मंगल द्विगुणित प्रभाव डालेगा तो ऐसे में वह कुण्डली डबल (द्विगुणित) मांगलिक कहलाएगी।

३. अथवा 1/477/8/12वें भावों में शनि, राहु, केतु या सूर्य इनमें से कोई ग्रह हो तथा मंगल हो तो ऐसे में भी यह कुण्डली डबल (द्विगुणित) मांगलिक कहलाएगी।

४. मंगल नीच का प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम, द्वितीय भावों में हो, साथ में यदि राहु. शनि, केतु या सूर्य हो तो ऐसे में यह कुण्डली त्रिबल (ट्रिबल) मांगलिक कहलाएगी क्योंकि मंगल दोष इस कुण्डली में तीन गुणा बढ़ जाता है।

५. इस प्रकार से एक कुण्डली अधिकतम पंचगुणित मंगल दोष वाली हो सकती है। तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं करना चाहिए। अब कुछ उदाहरण देंखे,मंगलीक दोष निवारण के कुछ बहुमूल्य सूत्र :-

उपरोक्त सभी सूत्रों को जब हम प्रत्येक कुण्डली पर घटित करेंगे तो 80 प्रतिशत जन्म कुण्डलीयां मंगल दोष वाली ही दिखलाई पड़ेंगी। इससे घबराने की कोई आवश्यकता नहीं क्योंकि परवर्ती कारिकाओं में मंगल दोष परिहार के इतने प्रमाण मिलते हैं कि इनमें से आधी से ऊपर कुण्डलीयां तो स्वतः ही परिहार वचनों से मंगल होते हुए भी मंगल दोष-रहित हो जाती हैं अर्थात् यदि पुरुष की कुण्डली में प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम, द्वादश भावों में शनि, राहु या सूर्य हो तो मंगल का मिलान हो जाता है। इसमें कुछ भी परेशानी नहीं है। सारी समस्याएं स्वतः ही समाप्त हो जाती है। उनमें से कुछ सूत्र इस प्रकार हैं।

अजे लग्ने, व्यये चापे, पाताले वृश्चिके स्थिते।
वृषे जाये, घटे रन्ध्र, भौमदोषो न विद्यते।।१।।

मेष का मंगल लग्न में, धनु का द्वादश भाव में, वृश्चिक का चौथे भाव में, वृषभ का सप्तम में, कुम्भ का आठवें भाव में हो तो भौम दोष नहीं रहता।।१।।

नीचस्थो रिपुराशिस्थः खेटो भावविनाशकः।
मूलस्वतुंगामित्रस्था भाववृद्धि करोत्यलम् ।।२।। -जातक पारिजात

अतः स्व (१,८) मूल त्रिकोण, उच्च (१०) मित्रस्थ (५,९,१२) राशि अर्थात् सूर्य, गुरु और चन्द्रक्षेत्री हो तो भौम का दोष नहीं रहता ।।२।।

अर्केन्दुक्षेत्रजातानां, कुजदोषो न विद्यते।
स्वोच्चमित्रभजातानां तद् दोषो न भवेत् किल।।३।।

सिंह लग्न और कर्क लग्न में भी लग्नस्थ मंगल का दोष नहीं है।।३।।

शनिः भौमोऽथवा कश्चित्, पापो वा तादृशो भवेत्।
तेष्वेव भवनेष्वेव, भौमदोषविनाशकृत् ।।४।।

शनि, मंगल अथवा कोई भी पाप ग्रह राहु, सूर्य, केतु अगर १, ४, ७, ८, १२ वें भाव में कन्या जातक के हों और उन्हीं भावों में वर के भी हों तो भौम दोष नष्ट होता है। मंगल के स्थान पर दूसरी कुण्डली में शनि या पांच ग्रहों में से एक भी हो, तो उस दोष को काटता है।।४।।

यामित्रे च यदा सौरिःलग्ने वा हिबुकेऽथवा।
अष्टमे द्वादशे वापि भौमदोषविनाशकृत्।।५।।

शनि यदि १,४,७,८,१२ वें भाव में एक की कुण्डली में हो और दूसरे की कुण्डली में इन्हीं स्थानों में से एक किसी स्थान में मंगल हो तो भौम दोष नष्ट हो जाता है।।५।।

केन्द्रे कोणे शुभोदये च, त्रिषडायेऽपि असद् ग्रहाः।
तदा भौमस्य दोषो न, मवने मवपस्तथा।।६।।

तृतीय, षष्ठ, एकादश भावों में अशुभ ग्रह हों और केन्द्र १, ४, ७, १०, व कोण ५,९, में शुभ ग्रह हो तथा सप्तमेश सातवें हो तो मंगल का दोष नहीं रहता।।६।।
सबले गुरौ भृगौ वा लग्नेऽपिवा अथवा भौमे।

वक्रिणि नीचगृहे वाऽर्कस्थेऽपि वा न कुजदोषः।।७।।

गुरु व शनि बलवान हो, फिर भले ही १,४,७,१० व कोण ५,९ में शुभ ग्रह हो तथा सप्तमेश सातवें हो तो मंगल का दोष नहीं होता ।।७।।

वाचस्पती नवमपंचकेन्द्रसंस्थे जातांगना भवति पूर्णविभूति युक्ता।
साध्वी, सुपुत्रजननी सुखिनी गुणढ्याः, सप्ताष्टके यदि भवेदशुभ ग्रहोऽपि।।८।।

कन्या की कुण्डली में गुरु यदि १,४,५,७,९,१० भावों में मंगल हो, चाहे वक्री हो, चाहे नीच हो या सूर्य की राशि में स्थित हो, मंगलीक दोष नहीं लगता। अपितु उसके सुख-सौभाग्य को बढ़ाने वाला होता है।।८।।

त्रिषट् एकादशे राहुः, त्रिषडेकावशे शनिः।
विषडकादेश भौमः सर्वदोषविनाशकृत् ।।९।।

३,६,११ वें भावों में राहु, मंगल या शनि में से कोई ग्रह दूसरी कुण्डली में हो तो भौम दोष नष्ट हो जाता है।।९।।

चन्द्र, गुरु या बुध से मंगल युति कर रहा हो तो भौम दोष नहीं रहता परन्तु इसमें चन्द्र व शुक्र का बल जरूर देखना चाहिए।।१०।।

द्वितीय भौमदोषस्तु कन्यामिथुनयोर्विना ।।११।।

द्वितीय भाव में बुध राशि (मिथुन व कन्या) का मंगल दोषकृत नहीं है। ऐसा वृषभ व सिंह लग्न में ही संभव है ।।११।।

चतुर्थे कुजदोषः स्याद्, तुलावृषभयोर्विना ।।१२।।

चतुर्थ भाव में शुक्र राशि (वृषभ-तुला) का मंगल दोषकृत नहीं है। ऐसा कर्क और कुंभ लग्न में होगा ।।१२।।

अष्टमो भौमदोषस्तु धनुमीनद्वयोर्विना ।।१३।।

अष्टम भाव में गुरु राशि (धनु-मीन) का मंगल दोषकृत 
नहीं है। ऐसा वृष लग्न और सिंह लग्न में होगा ।।१३।।

व्यये तु कुजदोषः स्याद्, कन्यामिथुनयोर्विना ।।१४।।

बारहवें भाव में मंगल का दोष बुध, राशि (मिथुन, कन्या) में नहीं होगा। ऐसा कर्क लग्न और तुला लग्नों में होगा ।।१४।।

१,४,७,८,१२ भावों में मंगल यदि चर राशि मेष, कर्क, मकर का हो तो कुछ दोष नहीं होता ।।१५।।

दंपत्योर्जन्मकाले, व्यय, धन हिबुके, सप्तमे लग्नरन्ने,
लग्नाच्चंद्राच्च शुक्रादपि भवति यदा भूमिपुत्रो द्वयो।।
दम्पत्योः पुत्रप्राप्तिर्भवति धनपतिर्दम्पति दीर्घकालम्,
जीवेतामत्रयोगे न भवति मूर्तिरिति प्राहुरत्रादिमुख्याः ।।१६।।

दम्पत्ति के १,४,७,८,१२ वें स्थानों में मंगल जन्म से व शुक्र लग्न से हो दोनों के ऐसा होने पर वे दीर्घकाल तक जीवित रहकर पुत्र धनादि को प्राप्त करते हैं ।।१६।।
.
भौमेन सदृशो भौमः पापो वा तादृशो भवेत्।
विवाहः : शुभदः प्रोक्ततिश्चरायुः पुत्रपौत्रदः ।।१७।।

मंगल के जैसा ही मंगल व वैसा ही पाप ग्रह (सूर्य, शनि, राहु) के दूसरी कुण्डली में हो तो विवाह करना शुभ है ।।१७।।

कुजोजीवसमायुक्तो, युक्तौ वा कुजचन्द्रमा।
चन्दे केन्द्रगते वापि, तस्य दोषो न मंगली ।।१८।।

गुरु और मंगल की युति हो या मंगल चन्द्र की युति हो या चन्द्र केन्द्रगत हो तो मंगलीक दोष नहीं होता ।।१८।।

न मंगली यस्य भृगुद्वितीये, न मंगली पश्यन्ति च जीवः ।।१९।।

शुक्र दूसरे घर में हो, या गुरु की दृष्टि मंगल पर हो गुरु मंगल के साथ हो, या मंगल राहु से युति हो या केन्द्रगत हो तो मंगली दोष नहीं होता ।।१९।।

सप्तमस्थो यदा भौमो, गुरुणा च निरीक्षितः।
तदातु सवैसौख्यम् मंगलीदोषनाशकृत् ।।२०।।

सातवें भवन में यदि गुरु से देखा जाए तो मंगलीक दोष नष्ट करके सर्व सुख देता है ।।२०।।

केतु का फल मंगलवत् होता है अतः अश्विनी, मघा मूल नक्षत्रों में मंगल हो तो भी मंगलीक दोष नहीं रहता है।

यह उपरोक्त योग यदि कुंडली में हों तो मंगल का अधिक प्रभाव नहीं रहता है अपितु मंगल दोष खत्म हो जाता है और ऐसे में केवल मंगल पूजन या मंगल के उपाय मात्र करने के बाद शादी विवाह ना निर्णय लिया जा सकता है। मंगल दोष निवारण हेतु आप मंगल दोष निवारण कवच पहने जिससे आपको शीघ्र लाभ प्राप्त होंगे,यह कवच बनाने हेतु मंगल शांति यज्ञ में खैर की लकड़ी को समिधा के रूप में काम में लिया जाता है और अनंतमूल की जड़ को शुभ मुहूर्त में निकालकर उसको प्राण प्रतिष्ठित करना पड़ता है । अनंतमूल की जड़ पर "ॐ क्रां क्रीं कौं सः भौमाय नमः" नमः का मंगल दोष के हिसाब से जाप किया जाता है,यह सब क्रिया करने के बाद ही मंगल दोष निवारण कवच पहेना जाता है जिससे आपको उचित लाभ हो सके । इस कवच का न्योच्छावर राशि 1450/-रुपये है और यह कवच रत्नों से ज्यादा प्रभावशाली है ।

मंगल दोष निवारण कवच प्राप्त करने हेतु आप इस नम्बर पर +91-8421522368 व्हाट्सएप कर सकते है और फोन भी कर सकते है ।


आदेश.......

24 Dec 2019

नक्षत्रानुसार रोगोपचार.



ग्रह और नक्षत्रों से होने वाले रोग और उनके उपाय.
वैदिक ज्योतिषी के अनुसार नक्षत्र पंचांग का बहुत ही महत्वपूर्ण अंग होता है। भारतीय ज्योतिषी में नक्षत्र को चन्द्र महल भी कहा जाता है। लोग ज्योतिषीय विश्लेषण और सटीक भविष्यवाणियों के लिए नक्षत्र की अवधारणा का उपयोग करते हैं। शास्त्रों में नक्षत्रों की कुल संख्या 27 बताई गयी है। आज हम आपको इसकी जानकारी दे रहे हैं। ज्योतिषानुसार जिस प्रकार ग्रहों के खराब होने पर उनका बुरा प्रभाव देखने को मिलता है उसी प्रकार नक्षत्रों से भी कई रोगों कि गणना शास्त्रों में दी गई है आज हम आपको सभी नक्षत्रों से होने वाले रोग और उन रोगों के उपायों की संपूर्ण जानकारी दे रहे हैं यदि आपको अपना जन्म नक्षत्र पता है तो आप इस जानकारी को पढ़ें।

(नोट : यह जानकारी जन्म नक्षत्र के आधार पर ही दी गई है)

१. अश्विनी नक्षत्र :
अश्विनी नक्षत्र में पैदा हुए ज्यादातर जातकों को वायुपीड़ा, ज्वर, मतिभ्रम आदि से कष्ट होते हैं।
उपाय : अश्विनी नक्षत्र के देवता कुमार हैं। उनका पूजन और दान पुण्य, दीन दुखियों की सेवा से लाभ होता है।

२. भरणी नक्षत्र :
भरणी नक्षत्र में पैदा हुए ज्यादातर जातकों को शीत के कारण कम्पन, ज्वर, देह पीड़ा से कष्ट, देह में दुर्बलता, आलस्य व कार्य क्षमता का अभाव रहता है।
उपाय : भरणी नक्षत्र के देवता यम हैं उनका पूजन और गरीबों की सेवा करें लाभ होगा।

३. कृत्तिका नक्षत्र :
कृतिका नक्षत्र में पैदा हुए ज्यादातर जातकों को सिर, आँखें, मस्तिष्क, चेहरा, गर्दन, कण्ठनली, टाँसिल व निचला जबड़ा आता है. इस नक्षत्र के पीड़ित होने। पर आपको इससे संबंधित बीमारी होने की संभावना बनती है।
उपाय : कृत्तीका नक्षत्र के देवता अग्नि हैं अग्नि देव पूजन और नित्य सूर्योपासना करें। आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ भी आपके लिए शुभ फलदायक होगा।

४. रोहिणी नक्षत्र :
रोहिणी नक्षत्र में पैदा हुए ज्यादातर जातकों को सिर या बगल में अत्यधिक दर्द, चित्त में अधीरता जैसे रोग होते हैं।
उपाय : रोहिणी नक्षत्र के देवता ब्रह्मा हैं। ब्रह्म पूजन और चिरचिटे (चिचिढ़ा) की जड़ भुजा में बांधने से मन को शांति और रोग से मुक्ति मिलती है।

५. मृगशिरा नक्षत्र :
मृगशिरा नक्षत्र में पैदा हुए जातकों को ज्यादातर जुकाम, खांसी, नजला, से कष्ट। कफ द्वारा होने वाले सभी रोगों का कारक मृगशिरा नक्षत्र को माना जाता है।
उपाय : मृगशिरा नक्षत्र के देवता चन्द्र हैं। चन्द्र पूजन और पूर्णिमा का व्रत करे लाभ और रोगों से मुक्ति प्राप्त होती है।

६. आर्द्रा नक्षत्र :
आर्द्रा नक्षत्र में पैदा हुए ज्यादातर जातकों को अनिद्रा, सिर में चक्कर आना, आधासीरी का दर्द, पैर, पीठ में पीड़ा इत्यादि जैसे रोग होते हैं।
उपाय : आर्द्रा नक्षत्र के देवता शिव हैं। भगवान शिव की आराधना करे, सोमवार का व्रत, पीपल की जड़ दाहिनी भुजा में बांधे लाभ और रोगों से मुक्ति प्राप्त होती है।

७. पुनर्वसु नक्षत्र :
पुनर्वसु नक्षत्र में पैदा हुए ज्यादातर जातकों को सिर, नेत्र और कमर दर्द की अत्यधिक पीड़ा रहती है और इन कष्टों के कारण डाक्टरों के पास अधिक आना जाना रहता है।
उपाय : पुनर्वसु नक्षत्र के देवता हैं आदिती । आदिति देव पूजन और रविवार के दिन जिस रविवार को को पुष्य नक्षत्र हो उस दिन आक के पौधे की जड़ अपनी भुजा में बांधने से लाभ और इन रोगों से मुक्ति प्राप्त होती है।

८. पुष्य नक्षत्र :
पुष्य नक्षत्र में पैदा हुए ज्यादातर जातक निरोगी व स्वस्थ होता है। कभी तीव्र ज्वर से दर्द परेशानी होती है।
उपाय : पुष्य नक्षत्र के देवता ब्रहस्पति हैं। ब्रहस्पति व्रत, ब्रहस्पति पूजन और कुशा की जड़ भुजा में बांधने से तथा पुष्प नक्षत्र में दान पुण्य करने से लाभ और रोगों से मुक्ति प्राप्त होती है।

९. अश्लेषा नक्षत्र :
आश्लेषा नक्षत्र में पैदा हुए ज्यादातर जातक का दुर्बल देह प्रायः रोग ग्रस्त बना रहता है। देह में सभी अंग में पीड़ा, विष प्रभाव या प्रदूषण के कारण कष्ट इत्यादि जैसे रोग होते हैं।
उपाय : आश्लेषा नक्षत्र के देवता सर्प हैं। सर्प देव पूजन और नागपंचमी का पूजन, पटोल की जड़ बांधने से लाभ और रोगों से मुक्ति मिलती हैं।

१०. मघा नक्षत्र :
मघा नक्षत्र में पैदा हुए ज्यादातर जातकों को अर्धसीरी या अर्धांग पीड़ा, भूत पिचाश से बाधा इत्यादि जैसे रोग होते हैं।
उपाय : मघा नखट्र के देवता पित्रदेव हैं। पितृ पूजन के साथ कुष्ठ रोगी की सेवा, गरीबों को मिष्ठान्न का दान देने से लाभ और रोगों से मुक्ति प्राप्त होती है।

११. पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र :
पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र में पैदा हुए ज्यादातर जातकों को बुखार,खांसी, नजला, जुकाम, पसली चलना, वायु विकार से कष्ट इत्यादि जैसे रोग होते हैं।
उपाय : पूर्व फाल्गुनी नक्षत्र के देवता भग देव हैं। भग देव पूजन और पटोल या आक की जड़ बाजू में बांधने, नवरात्रों में देवी माँ की उपासना करने से लाभ और रोगों से मुक्ति प्राप्त होती है।

१२. उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र :
उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में पैदा हुए ज्यादातर जातकों को अत्यधिक ज्वर ताप, सिर व बगल में दर्द, कभी बदन में पीड़ा या जकडन इत्यादि रोग होते हैं।
उपाय : उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र के देवता अर्यमा हैं। अर्यमा देव पूजन और आक की जड़ बाजू में बांधने, ब्राह्मण को समय समय परभोजन कराते रहने से लाभ और रोगों से मुक्ति प्राप्त होती है।

 १३. हस्त नक्षत्र :
हस्त नक्षत्र में पैदा हुए ज्यादातर जातकों को अत्यधिक पेट दर्द, पेट में अफारा, पसीने से अत्यधिक दुर्गन्ध, बदन में वात पीड़ा इत्यादि जैसे रोग होते हैं।
उपाय : हस्त नक्षत्र के देवता विश्वकर्मा हैं। विश्वकर्मा पूजन और जावित्री की जड़ भुजा में बांधने से लाभ और रोगों से मुक्ति प्राप्त होती है।

१४. चित्रा नक्षत्र :
चित्रा नक्षत्र में पैदा हुए ज्यादातर जातकों को जटिल या विषम रोगों से कष्ट पाता है। रोग का कारण बहुधा समझ पाना कठिन होता है ! फोड़े फुसी सूजन या चोट से कष्ट इत्यादि जैसे रोग होते हैं।
उपाय : चित्रा नक्षत्र के देवता ट त्वष्टा देव हैं। त्वष्टा देव पूजन और असंगध की जड़ भुजा में बांधने, तिल चावल जौ से हवन करने से लाभ और रोगों से मुक्ति प्राप्त होती है।

१५. स्वाती नक्षत्र :
स्वाती नक्षत्र में पैदा हुए ज्यादातर जातकों को वात पीड़ा से कष्ट, पेट में गैस, गठिया, जकडन से कष्ट इत्यादि जैसे रोग होते हैं।
उपाय : स्वाति नक्षत्र के देवता वायु देव हैं। वायु देव पूजन और गाय माता की सेवा करने से लाभ और रोगों से मुक्ति प्राप्त होती है।

१६. विशाखा नक्षत्र :
विशाखा नक्षत्र में पैदा हुए ज्यादातर जातकों को सर्वांग पीड़ा से दुःख, फोड़े फिन सी आदि से रोग का बढ़ जाना जैसे रोग होते हैं।
उपाय : विशाखा नक्षत्र के देवता इंद्राग्नि हैं। इंद्राग्नि देव पूजन और गूंजा की जड़ भुजा पर बांधने, सुगन्धित वस्तु से हवन करने से लाभ और रोगों से मुक्ति प्राप्त होती है।

१७. अनुराधा नक्षत्र :
अनुराधा नक्षत्र में पैदा हुए ज्यादातर जातकों को ताप, जलन, और चमड़ी के अत्यधिक कष्ट इत्यादि जैसे रोग होते हैं।
उपाय : अनुराधा नक्षत्र के देवता मित्र देव हैं। मित्र देव पूजन, मोतिया, गुलाब की जड़ भुजा में बांधने से लाभ और रोगों से मुक्ति प्राप्त होती है।

१८. ज्येष्ठा नक्षत्र :
ज्येष्ठा नक्षत्र में पैदा हुए ज्यादातर जातकों को पित्त से रोग बढ़ने से कष्ट, देह में कम्पन, चित्त में व्याकुलता, एकाग्रता में कमी जैसे रोग होते हैं।
उपाय : ज्येष्ठ नक्षत्र के देवता इंद्रदेव हैं। इंद्रदेव पूजन और दूध का दान करने से लाभ और रोगों से मुक्ति प्राप्त होती है।

१९. मूल नक्षत्र :
मूल नक्षत्र में पैदा हुए ज्यादातर जातकों को सन्निपात ज्वर, हाथ पैरों का ठंडा पड़ना, मन्द रक्तचाप , पेट, गले में दर्द, अक्सर रोगग्रस्त रहना जैसे रोग होते हैं।
उपाय : मूल नक्षत्र के देवता दैत्यराज हैं। देव दैत्यराज पूजन और बत्तीस अलग अलग जगह के जल से स्नान के बाद गंगा जी स्नान करने से लाभ और रोगों से मुक्ति प्राप्त होती है।

२०. पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र :
पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में पैदा हुए ज्यादातर जातकों को अत्यधिक देह कम्पन हाथों में जकड़न, हड्डियों में समस्या, सर्वांग में पीड़ा जैसे रोग होते हैं।
उपाय : पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र के देवता जलदेवता हैं। जलदेवता पूजन, बहते जल में मीठे चावल प्रवाहित करने और मस्तक पर सफ़ेद चन्दन का लेप करने से रोगों से मुक्ति प्राप्त होती है।

२१. उत्तराषाढ़ा नक्षत्र :
उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में पैदा हुए ज्यादातर जातकों को संधिवात, गठिया, वात शूल या कटि पीड़ा, असहनीय वेदना इत्यादि जैसे रोग होते हैं।
उपाय : उत्तराषाढ़ा नक्षत्र के देवता विश्वेदेवा हैं। विश्वेदेवा पूजन और कपास की जड़ भुजा में बांधे, ब्राह्मणों को समय समय पर मीठा भोजन कराते रहने से लाभ और रोगों से मुक्ति प्राप्त होती है।

२२. श्रवण नक्षत्र :
श्रवण नक्षत्र में पैदा हुए ज्यादातर जातकों को अतिसार, दस्त, देह पीड़ा, दाद-खाज-खुजली जैसे चर्म रोग, कुष्ठरोग, पित्त, मवाद बनना, संधि वात, क्षय रोग से पीड़ा इत्यादि जैसे रोग होते हैं।
उपाय : श्रवण नक्षत्र के देवता विष्णु हैं। विष्णु पूजन और की जड़ भुजा में बांधने से रोग का शमन होता है और रोगों से मुक्ति प्राप्त होती है।

२३. धनिष्ठा नक्षत्र :
धनिष्ठा नक्षत्र में पैदा हुए ज्यादातर जातकों को मूत्र रोग, खूनी दस्त, पैर में चोट, सूखी खांसी, बलगम, अंग भंग, सूजन, फोड़े या लंगड़ेपन से कष्ट इत्यादि जैसे रोग होते हैं।
उपाय : धनिष्ठा नक्षत्र के देवता अष्टवसु हैं। देव अष्टवसु पूजन,भगवान मारुति (हनुमानजी) की आराधना, गुड़ मिश्रित चने का दान करने से लाभ और रोगों से मुक्ति प्राप्त होती है।

 २४. शतभिषा नक्षत्र :
शतभिषा नक्षत्र में पैदा हुए ज्यादातर जातकों को घुटनों व टखनों के बीच का भाग, पैर की नलियों की मांस पेशियाँ, इत्यादि में समस्या जैसे रोग होते हैं।
उपाय : शतभिषा नक्षत्र के देवता वरुण हैं। वरुण देव पूजन, मां दुर्गा की उपासना, कवच-कीलक-अर्गला का पाठ करने से लाभ और रोगों से मुक्ति प्राप्त होती है।

२५. पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र :
पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र में पैदा हुए ज्यादातर जातकों को उल्टी या वमन, बैचेनी, हृदय रोग, टखने की सूजन, आंतो के रोग से कष्ट इत्यादि जैसे रोग होते हैं।
उपाय : पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र के देवता अहि देव हैं। अहि देव पूजन, शृंगराज की जड़ भुजा पर बांधे, तिल का दान करने
से लाभ और रोगों से मुक्ति प्राप्त होती है।

२६. उत्तराभाद्रपद नक्षत्र :
उत्तराभाद्रपद नक्षत्र में पैदा हुए ज्यादातर जातकों को अतिसार, वातपीड़ा, पीलिया, गठिया, संधिवात, उदरवायु, पाव सुन्न पड़ना आदि से कष्ट इत्यादि जैसे रोग होते हैं।
उपाय : उत्तराभाद्रपद नक्षत्र के देवता नाग देव हैं। नाग देवता पूजन, पीपल की जड़ भुजा पर बांधने से तथा ब्राह्मणों और गाय माता को मिष्ठान्न दान करने से लाभ और रोगों से मुक्ति प्राप्त होती है।

२७. रेवती नक्षत्र :
रेवती नक्षत्र में पैदा हुए ज्यादातर जातकों को मति भ्रम, उदर विकार, मादक द्रव्य सेवन से उत्पन्न रोग, किडनी के रोग, बहरापन या कान का रोग, पाँव की अस्थि, माधसपेशियों में खिचाव से कष्ट इत्यादि जैसे रोग होते हैं।
उपाय : रेवती नक्षत्र के देवता पुषापित्र हैं। देव पुशापित्र पूजन और कुशा की जड़, काले आक की जड़ बाजू पर धारण करने से लाभ और रोगों से मुक्ति प्राप्त होती है।

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9 Dec 2019

माँ कालिकाय वचन सिद्धी




माँ काली को माँ के सभी रूपों में सबसे शक्तिशाली स्वरुप माना गया है । भय को दूर करने वाली , बुद्धि देने वाली , शत्रुओं का नाश करने वाली माँ काली की उपासना से सभी कष्ट स्वतः ही दूर होने लगते है । माँ काली की आराधना शीघ्र फल देने वाली है । शास्त्रों में वर्णित है कि कलियुग के समय हनुमान जी , काल भैरव और माँ काली की शक्तियाँ जागृत रूप में अपने भक्तों का उद्धार करने वाली होगी । कुछ मान्यताओं के आधार पर माँ काली की उपासना केवल सन्यासी और तांत्रिक तंत्र सिद्धियाँ प्राप्त करने हेतु करते है । किन्तु यह पूर्णत: सत्य नहीं है , माँ काली की उपासना साधारण व्यक्ति भी अपने कार्य सिद्धि हेतु कर सकते है ।


माँ काली मंत्र साधना में सफल होने से रोगों से मुक्ति मिलती है । शरीर को बल और बुद्धि प्राप्त होती है । हर प्रकार के भय और डर आदि तो माँ काली के स्मरण मात्र से ही दूर होने लगते है । माँ काली साधना से माँ की दस महाविद्याओं में से प्रथम विद्या सिद्ध होती है । माँ काली की साधना करने वाला साधक सम्पूर्ण जीवन मृत्यु के भय से मुक्त होकर जीता है । माँ काली साधना धन-लक्ष्मी, सुख-शांति व मान-सम्मान आदि सम्पूर्ण सुखों को देने वाली है ।


आज आपको मंत्र साधना के साथ साथ माँ काली जी को वचन में दिया जाएगा,माँ काली जी को वचन में प्राप्त करने हेतु सर्वप्रथम एक लौंग साथ मे एक खाली ताबीज लीजिए और माँ काली जी के मंदिर में जाये,वहा जाकर माँ काली जी से कृपा प्राप्ति हेतु प्रार्थना करे और लौंग को खाली ताबीज में डालकर लाल धागे में पहन लीजिये,यह काम मंगलवार के दिन करना है । ताबीज को शनिवार तक धारण करके रखिये और शनिवार के दिन लाल वस्त्र, 8 निम्बू, एक फूलों का माला, कपूर का तीन-चार टिकिया, लाल कुंकुम और एक मिठाई साथ मे पूजन हेतु रखिये । पूजन का फोटो आपको व्हाट्सएप पर दिया जाएगा जिससे आप जान सकोगे की पूजन कैसे करना है । ताबीज में रखी लौंग का क्या करना है यह भी रहस्य बता दिया जाएगा । पूजन से पूर्व मुझे फोन (मेरा फोन नम्बर +918421522368) कीजिये मैं कुछ मंत्र आपके कान में बोलकर फूँक लगा दूँगा और आपसे एक वचन लूंगा के "आप इस जीवन मे इस साधना से किसीका कभी बुरा नही करेंगे और इस विधान को गोपनीय रखेंगे,किसी भी प्रकार से शक्ति प्रदर्शन भी नही करोगे", साथ मे आपको माँ काली जी को वचन में दिया जाएगा और एक गोपनीय शाबर मंत्र भी दिया जाएगा ।

मंत्र का 108 बार जाप करने से मंत्र सिद्धि हो जाएगी और मंत्र के माध्यम से काम कैसे करना है यह दूसरे दिन बता देंगे परंतु आप अपनी ऊर्जा बढ़ाने हेतु मंत्र का नित्य 108 बार जाप करते रहिए । जितनी ऊर्जा बढ़ेगी उतना ही आपको फायदा होगा,आपके कार्य शीघ्र होने लगेंगे और 108 बार जाप करने में 20 मिनट से ज्यादा समय नही लगेगा । इस साधना हेतु दक्षिणा की न्योच्छावर राशि 2100/-रुपये निर्धारित की गयी है,इससे ज्यादा दक्षिणा स्वीकार नही की जायेगी ।

जो साधक माँ काली जी के वचन प्राप्ति साधना हेतु उस्तुक है वह साधक व्हाट्सएप पर संपर्क करे,योग्य मार्गदर्शन किया जाएगा,सभी प्रकार का मार्गदर्शन निःशुल्क किया जाता है इसलिए चिंता की कोई बात नही है ।




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