दैनिक जीवन में कर्म करते समय, हम उन कर्मों का फल पुण्य एवं पाप के रूप में भोगते हैं । पुण्य एवं पाप हमें अनुभव होनेवाले सुख और दुख की मात्रा निर्धारित करते हैं । अतएव यह समझना महत्त्वपूर्ण है कि पापकर्म से कैसे बचें । वैसे तो अधिकांश लोग सुखी जीवन की आकांक्षा रखते हैं; परन्तु जिन लोगों को आध्यात्मिक प्रगति की इच्छा है, वे यह जानने की जिज्ञासा रखते हैं कि क्यों मोक्षप्राप्ति के आध्यात्मिक पथ में पुण्य भी अनावश्यक हैं ।
पुण्य अच्छे कर्मों का फल है, जिनके कारण हम सुख अनुभव करते हैं । पुण्य वह विशेष ऊर्जा अथवा विकसित क्षमता है, जो भक्तिभाव से धार्मिक जीवनशैली का अनुसरण करने से प्राप्त होती है । उदाहरणार्थ मित्रों की आर्थिक सहायता करना अथवा परामर्श देना पुण्य को आमन्त्रित करना है । धार्मिकता तथा धर्माचरण की विवेचना अनेक धर्मग्रंथों में विस्तृतरूप से की गई है । पुण्य के माध्यम से हम दूसरों का कल्याण करते हैं । उदाहरण के लिए कैन्सर पीडितों की सहायता के लिए दान करने से कैन्सर से जूझ रहे अनेक रोगियों को लाभ होगा, जिससे हमें पुण्य मिलेगा ।
पाप बुरे कर्म का फल है, जिससे हमें दुख मिलता है । किसी और का बुरा चाहने की इच्छा से कर्म करने पर पाप उत्पन्न होता है । यह उन कर्मों से उत्पन्न होता है जो प्रकृति अथवा ईश्वर के नियमों के विपरीत अथवा उसके विरुद्ध हों । उदाहरण के लिए यदि कोई व्यापारी अपने ग्राहकों को ठगता है, तो उसे पाप लगता है । कर्त्तव्य-पूर्ति नहीं करने पर भी पाप उत्पन्न होता है, उदा. जब कोई पिता अपने बच्चों की आवश्यकताओं की ओर ध्यान नहीं देता अथवा जब वैद्य अपने रोगियों का ध्यान नहीं रखता ।
पुण्य और पाप इसी जन्म में, मृत्यु के उप रांत अथवा आगामी जन्मों में भोगने पडते हैं । पुण्य और पाप लेन-देन के हिसाब से सूक्ष्म होते हैं; क्योंकि लेन-देन का हिसाब समझना तुलनात्मक रूप से सरल है उदा. परिवार के स्तर पर, परन्तु यह समझना बहुत कठिन है कि क्यों किसीने एक अपरिचित का अनादर किया ।
पुण्यसंचय के अनेक कारण हो सकते हैं ।
प्रमुख कारण हैं :-
परोपकार
धर्मग्रंथों में बताए अनुसार धर्माचरण
दूसरे की साधना के लिए त्याग करना ।
उदाहरण के लिए यदि कोई बहू अपने कार्य से छुट्टी लेकर घर संभालती है, जिससे उसकी सास तीर्थयात्रा पर जा सके, तो बहू को सासद्वारा अर्जित तीर्थयात्रा के फल का आधा भाग मिलेगा । तथापि जहांतक संभव हो, दूसरों पर निर्भर होकर साधना न करें ।
पाप संचय के कुछ कारण हैं :-
क्रोध, लालच एवं ईर्ष्या के रूप में स्वार्थ एवं वासना व्यक्ति को पाप के लिए उद्युक्त करते हैं ।
सिद्धांतहीन अथवा क्रूर होना
किसी भिखारी से अपमानजनक बात करना
मांस एवं मदिरा का सेवन करना
प्रतिबन्धित वस्तुएं बेचना, ऋण न चुकाना, काले धनका व्यवहार, जुआ,झूठी गवाही देना, झूठे आरोप लगाना,चोरी करना,दुराचार, व्यभिचार, बलात्कार,इत्यादि.....हिंसा,पशुहत्या,आत्महत्या
ईश्वर, मंदिर, आध्यात्मिक संस्था इत्यादि की संपत्तिका अनावश्यक व्यय एवं दुरुपयोग इत्यादि.....अधिवक्ताओं को पाप लगता है, क्योंकि वे सत्य को असत्य एवं असत्य को सत्य बनाते हैं ।
पति को पत्नी के पापकर्म का आधा फल भोगना पडता है; क्योंकि उसने अपनी पत्नी को पापकर्म करने से न रोकने के कारण वह पाप का भागीदार बनता है ।
पतिद्वारा अधर्म से अर्जित संपत्ति व्यय करनेवाली तथा ज्ञात होने पर भी उसे न रोकनेवाली पत्नी को पाप लगता है । पापी के साथ एक वर्ष रहनेवाला भी उसके पाप का भागी हो जाता है ।
कई बार हम अपराधियों, भ्रष्ट व्यक्तियों, अधिकारियों और राजनेताओं इत्यादि को पाप कर्म में लिप्त देखते हैं और तब भी वे ऐश्वर्यपूर्ण जीवन जी रहे होते हैं । तब अनेक लोग, इस प्रश्न से खिन्न हो उठते हैं कि इन लोगों को इनके पाप का दंड क्यों नहीं मिलता ।
ये लोग अपने पूर्व जन्मों के पुण्य के कारण सुखी हैं । जबतक इनके पुण्य का भंडार समाप्त नहीं हो जाता, ईश्वर भी कुछ नहीं कर सकते । एक बार इनके द्वारा संचित पुण्य समाप्त हो जाने पर इन्हें पाप कर्मों का फल बीमारी, दरिद्रता (गरीबी), मृत्यु के पश्चात नरक की यातनाएं इत्यादि के रूप में भुगतना पडता है । संक्षेप में, कोई भी पाप के परिणामों से बच नहीं सकता ।
पूर्वजन्म के पुण्य होने पर भी, दुष्ट वृत्ति होने के कारण, अनिष्ट शक्तियां ऐसे लोगों के मन एवं बुद्धि को नियंत्रित कर इनमें स्वभावदोषों को दृढ करती है । जिससे वे और अधिक पाप करते हैं । फलतः इनके पुण्य शीघ्र समाप्त हो जाते हैं । एक बार उनके पुण्य समाप्त होने पर अनिष्ट शक्तियां उन्हें सर्व ओर से घेर लेती हैं, उन पर नियंत्रण कर लेती हैं और उन्हें अनेक प्रकार के कष्ट पहुंचाती हैं । मृत्यु के पश्चात भी ऐसे व्यक्ति अनेक वर्षों तक नरक की यातनाएं सहते हैं ।
अत्यधिक पाप करनेवाले अपने मनुष्य जीवन का दुरुपयोग करते हैं । अत: उन्हें सहस्त्रों वर्षों तक पुन: मनुष्य जन्म प्राप्त नहीं होता । नरक के भोग समाप्त होने पर कुछ मनुष्य निम्न प्रकार का जीवन व्यतीत करते हैं –
1. एक वृक्ष अथवा पत्थर का जीवन जीना,
2. कीटक के रूप में जन्म
3. मछली, चमगादड अथवा गिद्ध इत्यादि प्रजातियों में जन्म
4. भार ढोनेवाले पशु के रूप में जन्म (यदि पाप कर्म की मात्रा अत्यधिक है, तो उन्हें तीस-चालीस बार ऐसे जानवरों के रूप में जन्म लेना पडता है, तत्पश्चात अत्यधिक निर्धन परिवार में जन्म मिलता है, जहां प्रत्येक सदस्य को जीवन निर्वाह के लिए अत्यधिक श्रम करना पडता है ।)
5. कुरूप, विकलांग अथवा व्याधिग्रस्त (बीमार) व्यक्ति के रूप में जन्म
6. असाध्य रोग जैसे कैंसर इत्यादि का कष्ट
7. भिखारी बनना।
जो पाप करता है, उसे उसका परिणाम भुगतना ही पडता है । यदि हम इस जन्म में इन्हें नहीं भुगतेंगे, तो मृत्यु पश्चात जीवन में अथवा किसी भावी जन्म में उन्हें अवश्य भुगतना पडेगा । यदि हम जीवन की समस्याओं के प्रति इस सकारात्मक दृष्टि से देखेंगे कि ये समस्याएं हमारे पापकर्मों का फल है, तो हम अपने जीवन में अच्छा परिवर्तन लाकर आध्यात्मिक उन्नति कर सकते हैं ।
पापों का प्रायश्चित एवं "पाप दोष निवारण मंत्र साधना" इस प्रक्रिया में हमारी सहायता कर सकता है । इसलिये हमे दो प्रकार के प्रयत्न करने पडेगे सर्वप्रथम हम पाप ना करे और पुण्य करे,दुसरा प्रयत्न हमे "पाप दोष निवारण मंत्र साधना" प्रत्येक एकादशी तिथि को करते रहेना चाहिये ताकि हमारा अमुल्य जिवन एवं अगला जन्म ईश्वर के सानिध्य मे सुखद हो ।
साधना विधी:-
यह विधान प्रत्येक एकादशी तिथि को सम्पन्न करे,समय सुबह का हो जब सुर्य की किरणे निकल रही हो।घी का दिपक प्रज्वलित करें। भगवान विष्णु जी का पुजन करे और दिये हुए मंत्र का ग्यारह माला जाप करें। माला कोइ भी ले सकते है,आसन वस्त्र जो भी आपके पास हो वही प्रयोग मे लाये,दिशा पुर्व होना चाहिये।
मंत्र:-
।।ॐ भुत वर्तमान समस्त पाप रोग निवृत्तय निवृत्तय फट् ।।
मंत्र जाप पुर्ण विश्वास के साथ करे और इसके जाप करने से आपका आर्थिक स्थिति मजबूत होने लगेगा,कर्ज से मुक्ति प्राप्त होना सम्भव है,ईच्छाये पुर्ण होती है,गरीबी दुर होती है,अच्छी शिक्षा प्राप्त होती है,जिवन श्रेष्ठ होता है।
आदेश.....