2 Nov 2015

रंम्भा अप्सरा सिद्धी,(प्रत्यक्षिकरण).


यह सुधारित आर्टिकल है मेरा रंम्भा-अप्सरा पर जिसमे एक शाबर मंत्र भी दिया हुआ है.

समुद्र मंथन में सातवे क्रम में रंभा नामक अप्सरा निकली। वह सुंदर वस्त्र व आभूषण पहने हुई थीं। उसकी चाल मन को लुभाने वाली थी। ये भी देवताओं के पास चलीं गई। अप्सरा प्रतीक है मन
में छिपी वासना का। जब आप किसी विशेष उद्देश्य में लगे होते हैं तब वासना आपका मन विचलित करने का प्रयास करती हैं। उस स्थिति में मन पर नियंत्रण होना बहुत जरूरी है।
अप्सरा विद्या की साधनाओं में सर्वोच्च साधना कही गई है – अप्सरा साधना क्योंकि अप्सरा प्रतीक है सौंदर्य कि और सौंदर्य ही आधार है इस संसार में
स्पन्दंशीलता का, गतिशीलता का... सौंदर्य युक्त होना, श्रृंगार करना मानव से भी अधिक प्रकृति का गुण है | यह सारी कि सारी प्रकृति अपना श्रृंगार करने में हर क्षण व्यस्त सी बनी रहती है, नित नूतन होती रहती है और इस कारन से प्रकृति हमें मनोहर प्रतीत होती है | श्रृंगार करने का अर्थ है अपने-आप को जीवन में जोड़कर रखना, स्वं कि प्रस्तुति सजीव व स्पन्दित रूप में करते रहना, जीवन में किसी जड़ता का प्रवेश तो दूर उसका कोई आभास तक न होने देना |श्रृंगार करना तो अपने आप का सम्मान करना है और अपने आप का सम्मान करने के बाद ही तो कोई कर सकता है किसी दूसरे का सम्मान, इस
जीवन का सम्मान | जहाँ जीवन का सम्मान होता है वहां यह सम्भव ही नहीं कि कोई श्रृंगार के माध्यम से प्रस्फुटन और विकास होता है सौंदर्य का और सौंदर्य ही आधार है इस जगत में गतिशीलता का |यह बात जितनी भौतिक रूप से सत्य है उतनी है सत्य है अध्यात्मिक व साधनात्मक रूप से भी | भौतिक रूप में सौंदर्य का जो स्थान है, जो उसके स्पर्श से प्राप्त होने वाली माधुर्य कि लहरियां होती
हैं वै वर्णन से कहीं अधिक विषय हैं. अनुभूतियों का और अध्यात्मिक रूप में यही बात वर्णित है नाद व बिंदु के मिलन के रूप में | नाद प्रतीक है है शिवत्व का एवं बिंदु प्रतीक है शक्ति का | इस सम्पूर्ण सचराचर सृष्टि कि रचना ही नाद व बिंदु
के मिलन से सम्भव होई है और नित्य हो रही है तथा जिस उत्प्रेरक कि उपस्थिति में असम्भव हो रही है वह सौंदर्य है |
सौंदर्य से सृजन होता है काम का और इसी कारणवश भारतीय संस्कृति में कम का स्तन तुच्छ या हेय न होतार एक पुरुषार्थ के रूप में स्वीकार हुआ है | भारतीय
संस्कृति में काम का अर्थ दैहिक भावनाओं तक ही सीमित नहीं है वरन यह अपने उदात्त रूप में साधना भी है, नाद व बिंदु के समवेत रूपकी |
काम तत्व की उपेक्षा किसी भी मनुष्य से सम्भव नहीं, यहाँ तक कि किसी संन्यासी
से भी नहीं क्योंकि प्रत्येक जीवन कि उत्पति का माध्यम काम है | जिस हेतु अर्थात जिस काम भावना के स्फुरण
से जीव का गर्भ में अंकन होता है.वह बीजारोपण के कल से ही उस जीवन के सूक्ष्म स्मृति में कहीं न् कहीं अंकित हो जाता है और वही उसके भीतर भी एक सघन भाव बन कर सदैव साथ-साथ चलती रहती है |
किसी भी व्यक्ति में कम भावना तो हो किन्तु, कम वासना न् हो क्योंकि केवल कामवासना की नहीं कोई भी वासना
अपने आप में प्रवंचना होती है | इसके लिए
क्या उपाय सम्भव हो सकता है ? इसका एकमात्र उत्तर सौंदर्य कि साधना या स्वयं में सौंदर्य बोध विकसित करना है |
सौंदर्य बोध कि भावना का विकास हो जाने के बाद ही कोई उस परम तत्व का सौंदर्य समझ सकता है जो जगत के समस्त सौंदर्य का सृजन कर्ता है | निश्चित
रूप से कोई भी सृजनकर्ता अपने सृजन से कुछ अधिक ही प्रभावशाली होता है |
सौंदर्य शब्द कहते ही किसी के भी मानस में जो बिम्ब सर्वप्रथम आता है वह किसी स्त्री का होता है |
सौंदर्य व स्त्री मानों एक दूसरे के पर्यायवाची शब्द हों और यह असहज भी नहीं है क्योंकि इस सृष्टि में सौंदर्य का सर्वाधिक स्पन्दनशील रूप एक स्त्री ही हो सकती है, मात्र दैहिक रूप में ही
नहीं वरन उससे कहीं अधिक कोमल भावनाओं के अभिव्यक्ति करण के रूप में | भावनाओं के सौंदर्य से जो उत्पन्न होता है उसे ही लास्य अर्थात नर्तन कहा गया है और ऐसे नर्तन में कोई आवश्यक नहीं कि हाथ-पांव कि गतिशीलता हो | एक नर्तन कि स्थिति वह भी होती है जहाँ मन नृत्य कर उठता है और ऐसा तब होता है जब मन में सौंदर्य बोध कि कोई धारणा निर्मित होई हो | ब्लौग में निरंतर अप्सरा साधना
अथवा यक्षिणी साधनायें प्रस्तुतकरने का
यही अर्थ है कि साधकों में सौंदर्य बोध
प्रस्फुटित हो सके, उनका लास्य से परिचय हो सके क्योंकि किसी भी देवी अथवा
देवता का मूल स्वरुप लास्यमय ही होता है, वै मानव कि भांति विषाद से घिरे नहीं होते | एक छोटा.बच्चा जब पड़ने जाता है तो उसे छोटे अ से अनार पढाया जाता
है यदपि छोटे अ से अभ्यर्थना जैसा शब्द भी.है किन्तु वहबच्चा उस शब्द का भाव ग्रहण नहीं कर सकता | सौनाद्री को भी व्यखियत करते समय ( उसके प्राथमिक चरण में ) उसकी प्रचलित मान्यताओं के रूप में प्रस्तुत करना एक विवशता रही है किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं कि सौंदर्य शब्द के भाव को ही सीमित कर दिया जाए | साथ ही यदि ऐसी व्याख्या से कोई
कामपरक भाव सामने आता भी है हैतो वह
निरंतर टेलिविजन, विशेषकर म्यूजिक चैनल्स से प्रसारित हो रही नाभि के नीचेके उन ‘शिष्ट’ झटकों से तो अधिक शिष्ट है ही, जिन्हें आज परिवार में युवा भाई और बहन साथ-साथ बैठकर देखने में कोई झिझक महसूस नहीं करते | ....... और कहाँ तक वर्जित कर भी सकता है कोई ऐसी बातों को ?काम तो मनुष्य का
सहज प्रवाह है | प्रवाह को एक और से वर्जित करेंगे तो कहीं और से मार्ग खोज लेगा, भले ही उस प्रयास में कोई विकृति ही
क्यों न आकर समाजाए | मनुष्य में कोई विकृति न् समाए इसी कारणवश तो विवाह जैसे संस्कार का जनम हुआ | एक स्त्री और एक पुरुष को परस्पर संयुक्त करने
कि धारणा बनी अन्यथा आदिम युग में तो विवाह जैसी कोई धारणा ही नहीं थी | एक स्त्री और एक पुरुष के मिलने से जो इकाई बनती है वह भी एक ही होती है – कम से
कम हमारी संस्कृति तो हमें यही बताती है | ऋग्वेद में एक नवविवाहित को आशीर्वचन देते समय कहा गया है – वश पुत्रवती भव, एकादश पुत्र भव, सौभाग्य
भव | और ऐसी कथन के पीछे जो भव हैं वह यह है कियौवनावस्था के पश्चात पति और पत्नी परस्पर वासना के भव के पृथक हो जाये तथा स्त्री मातृत्व के भव से इतनी
अपूरित हो जाए कि उसे अपना पति भी एक शिशु सादृश्य लगने लगे | जीवन के प्रति ऐसी सम्पूर्ण दृष्टि कि भावना में फिर कम कि चर्चा करना वहां से न्यून हो सकता था ? सौंदर्य साधनाएं ऐसे ही स्थितप्रज्ञ ऋषियों द्वारा सृजित कि गयी है |
मनुष्य कि मूल प्रवृतियों का समाधान विवाह भले ही समाज में एक उपाय के रूप
में स्वीकार कर लिया गया हो किन्तु आवश्यक.नहीं कि इस उपाय के द्वारा उसकी प्रवृतियों का उदातिकरण भी हो जाए | यदि ऐसा होता तो एक विवाह के बाद दूसरा विवाह के बाद तीसरा ... या विवाह एक से करते हुए भी कई स्त्रियों से सम्बन्ध रखने के छटपटाहट न होती व्यक्ति में | व्यक्ति में भावनाओं का उदात्तीकरण जिस माध्यम से हो सकता है वह सौंदर्य बोध ही है | एक व्यक्ति बाग में जाता है और खिले हुए फूलों कि मुस्कराहट को निहारता हुआ मन ही मन में मुस्कुरा कर आगे बढ जाता है और वहीँ कोई दूसरा व्यक्ति उसे तोड़कर अपने कोट में लगा लेना चाहता है या कोई तीसरा उस फूल को सूंघकर मसलकर फ़ेंक देता है |इनमें से प्रथम व्यक्ति सौंदर्य-बोध से युक्त व्यक्ति है, दूसरा व्यक्ति भोगी तथा तीसरा किसी
बलात्कारी कि मानसिकता से युक्त व्यक्ति है | अब साधक स्वं ही तय कर ले कि वह किस मानसिकता में खड़ा है | आखिर भावनाओं का भी कुछ महत्व होता होगा –यदि जीवन में नहीं तो कम से
कम साधना मार्ग में अवश्य ही | जीवन का उत्स कल अर्थात जिस कल में मनुष्य अपने जीवन का निर्माण सतत रूप
से करता है वह २१ से ५० वर्ष के मध्य होता है | पचास वर्ष के बाद किसी नवीन भाव को स्वीकार करने कि चेतना अथवा किसी नये कार्य को हाथ में लेने कि क्षमता कम होने लग जाती है जीवन का यह मध्य काल केवल शारीरिक व मानसिक क्षमता कि दृष्टि से ही नहीं वरन पचास वर्ष
के पश्चात के जीवन को भी क्षमतावान बनाए रखने कि दृष्टि से महत्वपुर्ण कल होता है | जीवन के ऐसे ही क्षणों में
जिससाधना को, भले ही अन्य किसी
साधना में विलम्ब कर, सम्पन्न कर लेना चाहिए वह होती है अप्सरा साधना क्योंकि अप्सरासाधना से शरीर को जो उर्जा और शारीरिक उर्जा से भी अधिक आवश्यक मानसिक उल्लास प्राप्त होता है वह आगामी आजीवन के लिए अनेक रूपं से लाभप्रद सिद्ध होता है | यह एक अनुभूत तथ्य है कि यदि अप्सरा साधना को सम्पन्न करने के उपरांत अन्य साधनाओं को प्रारम्भ किया जाए तो उनमें
अपेक्षाकृत अधिक तीव्रता से सफलता प्राप्त होने कि स्थिति बन जाती हक्योंकी
अप्सरा साधना करने के पश्चात निश्चय ही साधक के शारीर में ऐसे परिवर्तन हो जाते हैं जो आतंरिक रूप से उसे नित्य यौवनयान बनाये रखने में सहायक सिद्ध होते हैं | शास्त्रों में अप्सरा से सम्बंधित
अनेक विधानों का विवरण प्राप्त होता है जिनमें कहीं छह लाख तो कहीं सत्रह
लाख मन्त्र जप करने का विधान है | यहाँ हमारा.तात्पर्य उनकी समालोचना करना न होकर इस तथ्य को स्पष्ट करना है कि यदि साधक को उचित क्षणों में गुरु परम्परा में सुरक्षित किसी दुर्लभ मन्त्र कि
प्राप्ति हो जाए तो कोई आवश्यक नहीं कि वह स्वंय को किसी जटिल विधान में उलझाये | किसी भी साधना कि विशिष्टता
जिस बात में निहित होती है वह मात्र यही है कि मन्त्र प्रसंगर्षित अर्थात सहज शब्दों में गुरु प्रदत्त हो | संयोग से आगामी अधिष्ठात्री वर्ग कि अप्सराओं के रूप में मान्य अप्सराओं में एक रम्भा अप्सरा कि जयन्ती पड़ रही है जो.साधना का एक श्रेष्ठ मुहूर्त है | उच्चकोटि कि अप्सराओं
कि श्रेणी में रम्भा का प्रथम स्थान है, जो
शिष्ट और मर्यादित मणि जाती है, सौंदर्य कि दृष्टि से अनुपमेय कही जा सकती है |
शारीरिक सौंदर्य वाणी कि मधुरता नृत्य, संगीत, काव्य तथा हास्य और विनोद यौवन कि मस्ती, ताजगी, उल्लास और
उमंग ही तो रम्भा है | जिसकी साधना से वृद्ध व्यक्ति भी यौवनवान होकर
सौभाग्यशाली बन जाता है | जिसकी
साधना से योगी भी अपनी साधनाओं में पूर्णता प्राप्त करता है |
अभीप्सित पौरुष एवं सौंदर्य प्राप्ति के लिए
प्रतेक पुरुष एवं नारी को इस साधना में
अवश्य रूचि लेनी चाहिए | सम्पूर्ण प्रकृति
सौंदर्य को समेत कर यदि साकार रूप दिया तो उसका नाम रम्भा होगा | सुन्दर मांसल शारीर, उन्नत एवं सुडौल वक्ष: स्थल, काले घने और लंबे बाल, सजीव एवं माधुर्य पूर्ण आँखों का जादू मन को मुग्ध कर देने
वाली मुस्कान दिल को गुदगुदा देने वाला अंदाज यौवन भर से लदी हुई रम्भा बड़े से बड़े योगियों के मन को भी विचिलित कर देती है |
जिसकी देह यष्टि से प्रवाहित दिव्य गंध से
आकर्षित देवता भी जिसके सानिध्य के
लिए लालायित देखे जाते हैं | सुन्दरतम वर्स्त्रलान्कारों से सुसज्जित, चिरयौवन,
जो प्रेमिका या प्रिय को रूप में साधक के समक्ष उपस्थित रहती है | साधक को सम्पूर्ण भौतिक सुख के साथ मानसिक उर्जा,शारीरिक बल एवं वासन्ती सौंदर्य से परिपूर्ण कर देती है | इस साधना के सिद्ध होने पर वह साधक के साध छाया के तरह जीवन भर सुन्दर और सौम्य रूप में रहती है तथा उसके सभी मनोरथों को पूर्ण करने में सहायक होती है |
रम्भा साधना सिद्ध होने पर सामने वाला व्यक्ति स्वंय खिंचा चला आये यही तो चुम्बकीय व्यक्तिव है | साधना से साधक के शरीर के रोग, जर्जरता एवं वृद्धता समाप्त हो जाती है | यह जीवन कि सर्वश्रेष्ठ साधना है | जिसे देवताओं ने सिद्ध किया इसके साथ ही ऋषि मुनि, योगी संन्यासी आदि ने भी सिद्ध किया इस सौम्य साधना को | इस साधना से प्रेम और समर्पण के कला व्यक्ति में स्वतः प्रस्फुरित होती है | क्योंकि जीवन में यदि प्रेम नहीं होगा तो व्यक्ति तनावों में बिमारियों से ग्रस्त होकर समाप्त हो जायेगा | प्रेम को अभिव्यक्त करने का सौभाग्य और सशक्त माध्यम है रम्भा साधना | जिन्होंने रम्भा साधना नहीं कि है, उनकेजीवन में प्रेम नहीं है, तन्मयता नहीं है, प्रस्फुल्लता भी नहीं है |

साधना विधि:-
सामग्री:-
प्राण-प्रतिष्ठित रम्भोत्कीलन यंत्र, रम्भा माला, सौंदर्य गुटिका तथा साफल्य मुद्रिका | यह रात्रिकालीन २७ दिन कि साधना है | इस साधना को किसी भी पूर्णिमा को, शुक्रवार को अथवा किसी भी विशेषदिन प्रारम्भ करें | साधना प्रारम्भ करने से पूर्व साधक को चाहिए कि स्नान आदि से निवृत होकर अपने सामने चौकी पर
गुलाबी वस्त्र बिछा लें, पीला या सफ़ेद
किसी भी आसान पर बैठे, आकर्षक
और सुन्दर वस्त्र पहनें | पूर्व दिशा कि ओर मुख करके बैठें | घी का दीपक जला लें |
सामने चौकी पर एक थाली या पलते
रख लें, दोनों हाथों में गुलाब कि पंखुडियां लेकर रम्भा का आवाहन करें |
|| ओम ! रम्भे अगच्छ पूर्ण यौवन संस्तुते ||
यह आवश्यक है कि यह आवाहन कम से कम १०१ बार अवश्य हो प्रत्येक आवाहन मन्त्र के साथ एक गुलाब के पंखुड़ी थाली में रखें | इस प्रकार आवाहन से पूरी थाली पंखुड़ियों से भर दें | अब अप्सरा माला को पंखुड़ियों के ऊपर रख दें इसके
बाद अपने बैठने के आसान पर ओर अपने ऊपर इत्र छिडके | रम्भोत्कीलन यन्त्र को माला के ऊपर आसान पर स्थापित करें | गुटिका को यन्त्र के दाँयी ओर तथा साफल्य मुद्रिका को यन्त्र के बांयी ओर स्थापित करें | सुगन्धित अगरबती एवं घी का दीपक साधनाकाल तक जलते रहना चाहिए |सबसे पहले गुरु पूजन ओर गुरु मन्त्र जप कर लें (जिनके गुरू ना हो वह शिवजी को गुरू मानकर "ओम नम: शिवाय"का जाप करे),फिर यंत्र तथा अन्य साधना सामग्री का पंचोपचार से पूजन
सम्पन्न करें | स्नान, तिलक, धुप, दीपक एवं पुष्प चढावें | इसके बाद बाएं हाथ में गुलाबी रंग से रंग हुआ चावल रखें, ओर निम्न मन्त्रों को बोलकर यन्त्र पर चढावें
|| ॐ दिव्यायै नमः ||
|| ॐ प्राणप्रियायै नमः ||
|| ॐ वागीश्वये नमः ||
|| ॐ ऊर्जस्वलायै नमः ||
|| ॐ सौंदर्य प्रियायै नमः ||
|| ॐ यौवनप्रियायै नमः ||
|| ॐ ऐश्वर्यप्रदायै नमः ||
|| ॐ सौभाग्यदायै नमः ||
|| ॐ धनदायै रम्भायै नमः ||
|| ॐ आरोग्य प्रदायै नमः ||
इसके बाद उपरोक्त रम्भा माला से निम्न मंत्र का ११ माला प्रतिदिन जप करें |

मंत्र :-
|| ॐ ह्रीं रं रम्भे ! आगच्छ आज्ञां पालय मनोवांछितं देहि ऐं ॐ नमः ||
om hreem ram rambhe aagachch agyaam paalay paalay manovaanchchitam dehi aim om phat.
प्रत्येक दिन अप्सरा आवाहन करें, ओर हर शुक्रवार को दो गुलाब कि माला रखें, एक माला स्वंय पहन लें, दूसरी माला को रखें, जब भी ऐसा आभास हो कि किसी का आगमन हो रहा है अथवा सुगन्ध एक दम बढने लगे अप्सरा का बिम्ब नेत्र बंद होने पर भी स्पष्ट होने लगे तो दूसरी माला सामने यन्त्र पर पहना दें | २७ दिन
कि साधना प्रत्येक दिन नये-नये अनुभव होते हैं, चित्त में सौंदर्य भव भाव बढने लगता है, कई बार तो रूप में अभिवृद्धि
स्पष्ट दिखाई देती है | स्त्रियों द्वारा इस साधना को सम्पन्न करने पर चेहरे पर झाइयाँ इत्यादि दूर होने लगती हैं | साधना पूर्णता के पश्चात मुद्रिका को अनामिका उंगली में पहन लें, शेष सभी सामग्री को जल में प्रवाहित कर दें | यह सुपरिक्षित साधना है| पूर्ण मनोयोग से साधना करने पर अवश्य मनोकामना पूर्ण होती है |
जब रंम्भा अप्सरा सामने ना आये या फिर फल प्रदान ना करे तो इस मंत्र का 21 बार जाप करे.

शाबर रंम्भा अप्सरा मंत्र:-
ll आओ आओ रंम्भा रुपवती,स्वर्ग द्वार छोडके,नही आओगी तो दुहाई स्वर्ग रानी की,दुहाई स्वर्ग के राजा की ll
आदेश......