27 Sept 2015

पूर्ण अष्ट यक्षिणी साधना विधान.

यक्षिणी को शिव जी की दासिया भी कहा जाता है,इसलिये आर्टिकल पुरा पढे तो आपको साधना के कुछ गोपनिय पहेलुओ का ग्यान प्राप्त होगा.
यक्ष का शाब्दिक अर्थ होता है 'जादू की
शक्ति'.आदिकाल में प्रमुख रूप से ये रहस्यमय जातियां थीं:- देव,दैत्य,दानव, राक्षस,यक्ष,गंधर्व,अप्सराएं, पिशाच,किन्नर, वानर, रीझ,भल्ल, किरात, नाग आदि.....ये सभी मानवों से कुछ अलग थे.इन सभी के पास रहस्यमय ताकत होती थी और ये सभी मानवों की किसी न किसी रूप में मदद करते थे.देवताओं के बाद देवीय शक्तियों के मामले में यक्ष का ही नंबर आता है.कहते हैं कि यक्षिणियां सकारात्मक शक्तियां हैं तो पिशाचिनियां नकारात्मक.बहुत से लोग यक्षिणियों को भी किसी भूत-प्रेतनी की तरह मानते हैं, लेकिन यह सच नहीं है.रावण के सौतेला
भाई कुबेर एक यक्ष थे, जबकि रावण एक राक्षस. महर्षि पुलस्त्य के पुत्र विश्रवा की दो पत्नियां थीं इलविला और कैकसी. इलविला से कुबेर और कैकसी से रावण, विभीषण, कुंभकर्ण का जन्म हुआ.
इलविला यक्ष जाति से थीं तो कैकसी राक्षस.जिस तरह प्रमुख 33 देवता होते हैं, उसी तरह प्रमुख 64 यक्ष और यक्षिणियां भी होते हैं,गंधर्व और यक्ष जातियां देवताओं की ओर थीं तो राक्षस, दानव
आदि जातियां दैत्यों की ओर यदि आप देवताओं की साधना करने की तरह किसी यक्ष या यक्षिणियों की साधना करते हैं तो यह भी देवताओं की तरह प्रसन्न होकर आपको उचित मार्गदर्शन या फल देते हैं, उत्लेखनीय है कि जब पाण्डव दूसरे वनवास के समय वन-वन भटक रहे थे तब
एक यक्ष से उनकी भेंट हुई जिसने युधिष्ठिर से विख्यात 'यक्ष प्रश्न' किए थे. उपनिषद की एक कथा अनुसार एक यक्ष ने ही अग्नि, इंद्र, वरुण और वायु का घमंड चूर-चूर कर दिया था.यक्षिणी साधक के समक्ष एक बहुत ही सौम्य और सुन्दर स्त्री
के रूप में प्रस्तुत होती है.किसी योग्य जानकार से पूछकर ही यक्षिणी साधना करनी चाहिए. साधक अपने विवेक से काम लें.
शास्त्रों में 'अष्ट यक्षिणी साधना' के नाम से वर्णित यह साधना प्रमुख रूप से यक्ष की श्रेष्ठ रमणियों की है.

ये प्रमुख यक्षिणियां है -
1. सुर सुन्दरी यक्षिणी,
2. मनोहारिणी यक्षिणी,
3. कनकावती यक्षिणी,
4. कामेश्वरी यक्षिणी,
5. रतिप्रिया यक्षिणी,
6. पद्मिनी यक्षिणी,
7. नटी यक्षिणी,
8.अनुरागिणी यक्षिणी सिद्ध

संशिप्त जानकारी दे रहा हू-

1-सुर सुन्दरी यक्षिणी.

यह सुडौल देहयष्टि, आकर्षक चेहरा, दिव्य आभा लिये हुए, नाजुकता से भरी हुई है. देव योनी के समान सुन्दर होने से कारण इसे सुर सुन्दरी यक्षिणी कहा गया है. सुर सुन्दरी कि विशेषता है, कि साधक उसे
जिस रूप में पाना चाहता हैं, वह प्राप्त होता ही है चाहे वह माँ का स्वरूप हो, चाहे वह बहन का या पत्नी का, या प्रेमिका का.यह यक्षिणी सिद्ध होने के पश्चात साधक को ऐश्वर्य, धन, संपत्ति आदि प्रदान करती है.

2-मनोहारिणी यक्षिणी.

अण्डाकार चेहरा, हरिण के समान नेत्र, गौर वर्णीय,चंदन कि सुगंध से आपूरित मनोहारिणी यक्षिणी सिद्ध होने के पश्चात साधक के व्यक्तित्व को ऐसा सम्मोहन बना देती है, कि वह कोई भी,चाहे वह पुरूष
हो या स्त्री, उसके सम्मोहन पाश में बंध ही जाता है,वह साधक को धन आदि प्रदान कर उसे संतुष्ट कराती है.

3-कनकावती यक्षिणी.

रक्त वस्त्र धारण कि हुई, मुग्ध करने वाली और अनिन्द्य सौन्दर्य कि स्वामिनी, षोडश वर्षीया, बाला स्वरूपा कनकावती यक्षिणी है.कनकावती यक्षिणी को सिद्ध करने के पश्चात साधक में तेजस्विता तथा प्रखरता आ जाती है, फिर वह विरोधी को भी मोहित करने कि क्षमता प्राप्त कर लेता है.यह साधक की प्रत्येक मनोकामना को पूर्ण करने मे सहायक होती है.

4-कामेश्वरी यक्षिणी.

सदैव चंचल रहने वाली, उद्दाम यौवन युक्त, जिससे मादकता छलकती हुई बिम्बित होती है.साधक का हर क्षण मनोरंजन करती है कामेश्वरी यक्षिणी.यह साधक को पौरुष प्रदान करती है तथा पत्नी सुख कि
कामना करने पर पूर्ण पत्निवत रूप में साधक कि कामना करती है.साधक को जब भी द्रव्य कि आवश्यकता होती है,वह तत्क्षण उपलब्ध कराने में सहायक होती है

5-रति प्रिया यक्षिणी.

स्वर्ण के समान देह से युक्त, सभी मंगल आभूषणों से सुसज्जित, प्रफुल्लता प्रदान करने वाली है रतिप्रिया यक्षिणी.रति प्रिया यक्षिणी साधक को हर क्षण प्रफुल्लित रखती है तथा उसे दृढ़ता भी प्रदान करती है.साधक और साधिका यदि संयमित
होकर इस साधना को संपन्न कर लें तो निश्चय ही उन्हें कामदेव और रति के समान सौन्दर्य कि उपलब्धि होती है

6-पदमिनी यक्षिणी.

कमल के समान कोमल, श्यामवर्णा, उन्नत स्तन, अधरों पर सदैव मुस्कान खेलती रहती है, तथा इसके नेत्र अत्यधिक सुन्दर है.पद्मिनी यक्षिणी साधना साधक को अपना सान्निध्य नित्य प्रदान करती है.
इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है, कि यह अपने साधक में आत्मविश्वास व स्थिरता प्रदान कराती है तथा सदैव उसे मानसिक बल प्रदान करती हुई उन्नति कि और अग्रसर करती है.

7-नटी यक्षिणी.

नटी यक्षिणी को 'विश्वामित्र' ने भी सिद्ध
किया था.यह अपने साधक कि पूर्ण रूप से सुरक्षा करती है तथा किसी भी प्रकार कि विपरीत परिस्थितियों में साधक को सरलता पूर्वक निष्कलंक बचाती है.

8-अनुरागिणी यक्षिणी.

अनुरागिणी यक्षिणी शुभ्रवर्णा है। साधक पर प्रसन्न होने पर उसे नित्य धन, मान, यश आदि प्रदान करती है तथा साधक की इच्छा होने पर उसके साथ उल्लास करती है.

अष्ट यक्षिणी साधना को संपन्न करने वाले साधक को यह साधना अत्यन्त संयमित होकर करनी चाहिए.समूर्ण साधना काल में ब्रह्मचर्य का पालन
अनिवार्य है. साधक यह साधना करने से पूर्व यदि.
साधना काल में मांस, मदिरा का सेवन न करें .यह.साधना रात्रिकाल में ही संपन्न करें.साधनात्मक.अनुभवों की चर्चा किसी से भी नहीं करें, न ही.किसी अन्य को साधना विषय में बतायें.निश्चय ही यह साधना साधक के जीवन में भौतिक पक्ष को पूर्ण करने मे अत्यन्त सहायक होगी, क्योंकि अष्ट यक्षिणी सिद्ध साधक को जीवन में कभी भी निराशा या हार का सामना नहीं करना पड़ता है.
वह अपने क्षेत्र में अद्वितीयता प्राप्त करता ही है.

साधना विधान-
इस साधना में आवश्यक सामग्री है -
"पारद अष्टाक्ष गुटिका"तथा अष्ट यक्षिणी सिद्ध यंत्र एवं 'यक्षिणी माला'.साधक यह साधना किसी भी शुक्रवार को प्रारम्भ कर सकता है.यह ग्याराह दिन की साधना है.लकड़ी के बजोट पर सफेद वस्त्र बिछायें
तथा उस पर कुंकुम से यंत्र बनाएं.
फिर उपरोक्त प्रकार से रेखांकित यंत्र में जहां 'ह्रीं' बीज अंकित है वहां "पारद अष्टाक्ष गुटिका" स्थापित करें.फिर अष्ट यक्षिणी का ध्यान कर गुटिका का पूजन कुंकूम, पुष्प तथा अक्षत से करें,धुप तथा दीप लगाए और गुटिका को देखते हुए मंत्र का जाप 108 बार करे "ओम ह्रीं शिव प्रिये प्रत्यक्षं दर्शय सिद्धये ह्रीं फट".फिर यक्षिणी से निम्न मूल मंत्र की एक माला मंत्र जप करें, फिर क्रमानुसार दिए गए हुए आठों यक्षिणियों के मंत्रों की एक-एक माला जप करें.प्रत्येक यक्षिणी मंत्र की एक माला
जप करने से पूर्व तथा बाद में मूल मंत्र की एक माला मंत्र जप करें। उदाहरणार्थ पहले मूल मंत्र की एक माला जप करें, फिर सुर-सुन्दरी यक्षिणी मंत्र की एक माला मंत्र जप करें, फिर मूल मंत्र की एक माला मंत्र जप करें, फिर क्रमशः प्रत्येक यक्षिणी से सम्बन्धित मंत्र का जप करना है.ऐसा ग्याराह  दिन तक नित्य करें.

मूल अष्ट यक्षिणी मंत्र-

॥ ॐ ऐं श्रीं अष्ट यक्षिणी सिद्धिं सिद्धिं देहि
नमः ॥

1-सुर सुन्दरी मंत्र-
॥ ॐ ऐं ह्रीं आगच्छ सुर सुन्दरी स्वाहा ॥

2-मनोहारिणी मंत्र
॥ ॐ ह्रीं आगच्छ मनोहारी स्वाहा ॥

3-कनकावती मंत्र
॥ ॐ ह्रीं हूं रक्ष कर्मणि आगच्छ कनकावती स्वाहा ॥

4-कामेश्वरी मंत्र
॥ ॐ क्रीं कामेश्वरी वश्य प्रियाय क्रीं ॐ ॥

5-रति प्रिया मंत्र
॥ ॐ ह्रीं आगच्छ आगच्छ रति प्रिया स्वाहा ॥

6-पद्मिनी मंत्र
॥ ॐ ह्रीं आगच्छ आगच्छ पद्मिनी स्वाहा ॥

7-नटी मंत्र
॥ ॐ ह्रीं आगच्छ आगच्छ नटी स्वाहा ॥

8-अनुरागिणी मंत्र
॥ ॐ ह्रीं अनुरागिणी आगच्छ स्वाहा ॥

मंत्र जप समाप्ति पर साधक साधना कक्ष में ही सोयें। अगले दिन पुनः इसी प्रकार से साधना संपन्न करें, ग्याराह दिनो साधना सामग्री को जिस वस्त्र पर यंत्र बनाया है,उसिमे मे बाँधकर सुरक्षित रखे.
जब भी यक्षिणी से काम करवाना हो तब सिर्फ यह पूर्ण विधान एक दिन करे,असंभव कार्य भी संभव होगा.
इस साधना मे "पारद अष्टाक्ष गुटिका"का महत्व बहोत ज्यादा है,बिना गुटिका के साधना मे सफलता प्राप्त करना कठिन है,माला यंत्र नही भी हो तो ज्यादा फर्क नही पडेगा.आप चाहे तो बिना गुटिका के साधना करके देखिये तो आपको प्रमाण मिल ही जायेगा.क्युके मैने प्रत्येक बार अपने अनुभव से गोपनियता का खुलासा किया है जो प्रत्येक जानकार नही करता.

"पारद अष्टाक्ष गुटिका" निर्माण-

इस गुटिका के निर्माण के लिए जिस अष्ट
संस्कारित पारद का प्रयोग किया जाता है
उसके सभी संस्कार रसांकुश यक्ष और  यक्षिणी के मन्त्रों से होता है परन्तु ये मंत्र जप दीपनी क्रम युक्त होना चाहिए,तभी इस पारद में वो प्रभाव आएगा जो इस गुटिका के निर्माण के लिए अपेक्षित है.तत्पश्चात इसे स्वर्ण ग्रास दिया जाये और इसे मुक्ता पिष्टी के साथ खरल किया जाये,जब पारद के साथ उस पिष्टी का पूर्ण योग हो जाये तब उसे,चन्द्रिका नागक जडि रस,विशुद्ध ताम्रभस्म,सफेदधतूरे,सिंहिका,श्वेतार्क रस और ताम्बूल के स्वरस के साथ आठ घंटों तक खरल किया जाये,और खरल करते समय-

ॐ नमो आदेश गुरूजी को,सारा पारा भेद उजारा,देत ज्ञान का उजारा,दूर कर अँधियारा,शिव की शक्ति इसी घडी इसी पल आये,भीतर समाये,करे दूर अँधियारा जो ना करे तो शंकर को त्रिशूल ताडे,शक्ति को खडग गिरे,छू वाचापुरी ll

उपरोक्त मंत्र का जप करते जाये,जब भी रस सूखने लगे तो नया रस डालते जाये ,जब समयावधि पूर्ण हो जाये तो उस पिष्टी को सुखाकर शराव सम्पुट कर 2 पुट दे दे और स्वांग शीतल होने के बाद उस पिष्टी के साथ पुनः मनमालिनी मंत्र का जप करते हुए उस पिष्टी का 10 वा भाग पारद डालकर खरल करे और मूष में रख कर गरम करे और धीरे धीरे विल्वरस का चोया देते जाये,लगभग 10 गुना रस धीरे धीरे
चोया देते हुए शुष्क कर ले.अब आप इसे
पिघलाकर गुटिका का आकार दे दे,इस क्रिया में पारद अग्निस्थायी हो जाता है और गुटिका हलके श्वेत वर्ण की बनती है जो पूर्ण दैदीप्य मान होती है.यदि पारद
अग्निसह्य नहीं हुआ तो क्रिया असफल
समझो.इस गुटिका को सामने रख पुनः 3 घंटों तक रसांकुश मन्त्रों का दीपनी क्रिया के साथ जप करो और गोरख मन मुद्रा का
प्रदर्शन करो.तथा इसके बाद प्राण प्रतिष्ठा
मन्त्रों से इसे प्रतिष्ठित कर इसमें 64 यक्षिणी का स्थापन कर दो,फिर षोडशोपचार पूजन कर उस पर आप मनोवांछित यक्षिणीसिद्धी प्रयोग कर सकते हैं.इसे शिवचक्षु मंत्र से यदि 11 माला मंत्र कर सिद्ध कर लिया जाये और पूजन स्थल पर स्थापित कर दिया जाये तो ये गुटिका यक्षिणी को बाँध देती है जिससे व्यक्ति को पूर्ण सफलता की प्राप्ति होती ही है और यह आठो यक्षिणी मंत्र शिव जी ने किलित किये हुए है,जिनका किलन गुटिका के प्रभाव से समाप्त होता है और इसके लिये कोई विशेष किलन मुक्ती विधान करने की आवश्यकता नही है.

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amannikhil011@gmail.com
पर,आपको आपके नक्षत्र नुसार साधना संबंधित मार्गदर्शन भी प्राप्त होगा,ताकी शीघ्र सफलता प्राप्त हो.

आदेश.