गुरु वे हैं जो मानव जाति के आध्यात्मिक अज्ञान रूपी अंःधकार को मिटाते हैं और उसे आध्यात्मिक अनुभूतियां और आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करते हैं ।
सबसे बड़ा तीर्थ तो गुरुदेव ही हैं जिनकी कृपा से फल अनायास ही प्राप्त हो जाते हैं। गुरुदेव का निवास स्थान शिष्य के लिए तीर्थ स्थल है। उनका चरणामृत ही गंगा जल है। वह मोक्ष प्रदान करने वाला है। गुरु से इन सबका फल अनायास ही मिल जाता है। ऐसी गुरु की महिमा है।
तीरथ गए तो एक फल, संत मिले फल चार।
सद्गुरु मिले तो अनन्त फल, कहे कबीर विचार।।
मनुष्य का अज्ञान यही है कि उसने भौतिक जगत को ही परम सत्य मान लिया है और उसके मूल कारण चेतन को भुला दिया है जबकि सृष्टि की समस्त क्रियाओं का मूल चेतन शक्ति ही है। चेतन मूल तत्व को न मान कर जड़ शक्ति को ही सब कुछ मान लेनाअज्ञानता है। इस अज्ञान का नाश कर परमात्मा का ज्ञान कराने वाले गुरू ही होते हैं।
किसी गुरु से ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रथम आवश्यकता समर्पण की होती है। समर्पण भाव से ही गुरु का प्रसाद शिष्य को मिलता है। शिष्य को अपना सर्वस्व श्री गुरु देव के चरणों में समर्पित कर देना चाहिए। इसी संदर्भ में यह उल्लेख किया गया है कि
यह तन विष की बेलरी, और गुरू अमृत की खान,
शीश दियां जो गुरू मिले तो भी सस्ता जान।
गुरु ज्ञान गुरु से भी अधिक महत्वपूर्ण है।
प्राय: शिष्य गुरु को मानते हैं पर उनके संदेशों को नहीं मानते। इसी कारण उनके जीवन में और समाज में अशांति बनी रहती है।
गुरु के वचनों पर शंका करना शिष्यत्व पर कलंक है। जिस दिन शिष्य ने गुरु को मानना शुरू किया उसी दिन से उसका उत्थान शुरू शुरू हो जाता है और जिस दिन से शिष्य ने गुरु के प्रति शंका करनी शुरू की, उसी दिन से शिष्य का पतन शुरू हो जाता है।
सद्गुरु एक ऐसी शक्ति है जो शिष्य की सभी प्रकार के ताप-शाप से रक्षा करती है। शरणा गत शिष्य के दैहिक, दैविक, भौतिक कष्टों को दूर करने एवं उसे बैकुंठ धाम में पहुंचाने का दायित्व गुरु का होता है।
आनन्द अनुभूति का विषय है। बाहर की वस्तुएँ सुख दे सकती हैं किन्तु इससे मानसिक शांति नहीं मिल सकती। शांति के लिए गुरु चरणों में आत्म समर्पण परम आवश्यक है। सदैव गुरुदेव का ध्यान करने से जीव शिव स्वरूप हो जाता है। वह कहीं भी रहता हो, फिर भी मुक्त ही है। ब्रह्म निराकार है। इसलिए उसका ध्यान करना कठिन है। ऐसी स्थिति में सदैव गुरुदेव का ही ध्यान करते रहना चाहिए। गुरु शिव स्वरूप हैं। इसलिए गुरु का नित्य ध्यान करते रहने से जीव शिवमय हो जाता है।
देखते ही अपना मस्तक झुक जाए, उसका नाम गुरु। अतः यदि गुरु हों, तो विराट स्वरूप होना चाहिए। तो अपनी मुक्ति होगी, नहीं तो मुक्ति नहीं होगी।
जहाँ पर अपने दिल को ठंडक हो उन्हें गुरु बनाना। दिल को ठंडक नहीं होती, तब तक गुरु मत बनाना। इसलिए हमने क्या कहा है कि यदि गुरु बनाओ तो आँखों में समाएँ वैसे को बनाना।
आप शिव जी को इष्ट मानते हो तो आपके लिये शिव जी स्वयं गुरु बनने के लिये तय्यार है,ये मै नही कह रहा हूँ। यह हमे तब पता चलता है जब नाथ साम्प्रदाय मे एक शाबर मंत्र देखने मिलता है जो शिव जी से सम्बन्धित गुरु मंत्र है। अब अगर स्वयं शिव जी हमारे गुरु बन जाये तो फिर जिवन मे कुछ भी शेष नही रहेगा। हमारा साधनात्मक जिवन तो सिद्धिमय हो जायेंगे और अंततः मोक्ष भी सम्भव है।
आज यहा पर एक येसा मंत्र दे रहा हू,जिसके माध्यम से स्वयं शिव जी स्वप्न मे आकर साधक को गुरु दीक्षा प्रदान करते हुए साधक को अपना शिष्य बना लेते है। इस साधना मे आवश्यकता है धैर्य की क्योके कथित समय पर साधक को सफलता ना मिले तो साधक को साधना तब तक करनी चाहिए जब तक वह सफल ना हो जाये।
यह साधना किसी भी सोमवार से प्रातः शुरू करें। मंत्र जाप रुद्राक्ष माला से करना है। वस्त्र आसन का रंग सफेद या पिला हो,दिशा पुर्व या ईशान हो । साधना शिवलिंग या शिव जी के चित्र के सामने करें। इस साधनों मे कम से कम एक माला करना जरुरी है और ज्यादा से ज्यादा 51 माला जाप कर सकते है।
मंत्र:-
।। ओम नमो आदेश गुरुजी को,शिवा शिवाय ओंकार स्वरुपाय गुरु महादेवाय प्रसन्न हो जाओ,मेरी भक्ति मंत्र की शक्ति,शिव वाचापुरी ।।
मंत्र आसानसा है,कुछ ज्यादा साधना मे परेशानी नही होगा। मै आप सभी के लिये कल्याण कामना करता हूँ, आप सभी को सफलता मिले।
आदेश.............