29 Jun 2019

कुंडलिनी उर्जा का सत्य



कुंडलिनी के बारे में आज आध्यत्म और विज्ञान दोनों ही खोज कर रहे हैं,यह एक आकर्षण का विषय हो गया है किन्तु बिना सत्य यह एक कल्पना और अंधविश्वास का विषय ही है। आज कुंडलिनी ध्यान पर कितने शिबिर और योग और हीलिंग सेंटर चल रहे पर क्या कुंडलिनी के बारे में जो सत्य परोसा गया है वो कितना सत्य है ?

क्यूंकि बिना अभ्यास सीधा ही कुंडलिनी जागरण में प्रवेश करना तबाही का कारण हो सकता है। गुरु परम्परा या सिद्ध कौलमार्ग को समझे बिना मूर्खतावश कुंडलिनी जाग्रत करना साधक का अधोपतन करवाता है। कुंडलिनी विषय गहरा और ध्यानात्मक विषय है। यह एक दिन के शिबिर या कुछ महीनो की प्राणायाम की प्रेक्टिस से सिद्ध नहीं होता। प्राणायाम केवल मस्तिष्क और ब्रह्मरंध्र शरीर के सोये हुए कोषों को चार्ज करता है। इससे कुंडलिनी का वहन 1 प्रतिशत भी नहीं होता। यह मिथ्या धारणा फेली हुई है। इस पर न जाने कितने लोग अपना बिज़नेस बना कर बैठ गए हैं। बिना सिद्धि को प्राप्त किये साधना में कुंडलिनी पर काबू पाना सम्भव नहीं है।

अब यह कुंडलिनी है क्या ? वह समझना है और उसके आयाम कितने है ? यह 16 आयाम और 7 पथ पर चल कर अपने शिव को मिलती है। कुंडलिनी एक सॉफ्टवेर प्रोग्राम जैसा है जहाँ उसकी खुद की शक्ति नहीं है वो प्रोग्रामर के आधीन हो कर अपने प्रोग्राम को रन करती है,प्रोग्रामर अपनी सोच, अपने संकल्प के अनुसार एक ही कुंडलनी को अनेको आयामों में विभाजित करता है,जिसको सहस्त्रदल की सिद्धि कहते हैं।

किन्तु यह प्रोग्रामर के पास खुद की शक्ति नहीं है। बल्कि वो अपने प्रोग्राम को रन करने के लिए पावर हाउस चैतन्य आत्मा का करता है आत्मा को अजाग्रत अवस्था में बांध दिया जाता है,अभी आत्मा तो स्वयं मुक्त है किन्तु कर्म-बंधन या कर्म-चक्र का प्रोग्राम वो आत्मा और शरीर के बीच का माध्यम जिसे मन कहते उसमें इंस्टाल किया जाता है।

कम्पूटर में जितने प्रोग्राम कम होगे उतने कम्पूटर की स्पीड ज्यादा रहेगी पर यह प्रोग्राम की कर्म की चिप जिसे कुंडलिनी कहते है उसे सुषुप्त अवस्था में छोड़ा जाता है। इस के कारण आत्मा परमात्मा नहीं बनकर
जीवात्मा बनाया जाता है। प्रोग्रामर के द्वारा पहले से जन्म और आने वाले जन्मो का कर्म पहले से ही इंस्टाल है। कभी-कभी इन्सान सिक्स्थ सेन्स की बातें करता है मानो वो नॉनसेन्स है क्यूंकि उसको पता ही नहीं प्रेरणा देने वाला उसका ही प्रोग्राम किया हुआ मन है। वो अपने प्रोग्राम के अनुसार ही कर्म करता है
और पाप-पूण्य सिद्धियो के चक्र को सत्य मान लेता है। यही मायाजाल है और उसका सेंसर है मन।
मन की तीन अवस्थाएं है-
उसको बाह्य, सूक्ष्म और अंतर मन कहते हैं। बाह्य वाला व्यक्ति जड और तामसिक होता है। सूक्ष्म वाला भोगी और राजसिक होता है। अंतर मन वाला सात्विक और वैरागी होता है। यह तीनो मायाजाल में घूमते है। किसी प्रोग्रामर के संकल्पों को पूरा करता है। सत्व वाला सत्व बढ़ा कर वापस दूसरे जन्म में रजस में फसता है क्यूंकि उसने सत्व में भौतिक सुखों का त्याग किया किन्तु बाह्य और सूक्ष्म मन के प्रोग्राम को नहीं जिया। विधाता कर्म का चक्र ऐसे घुमाता है।

दुसरे तत्वों वाले उसके विपरीत तत्वों का चयन करेंगे। कुंडलिनी का कार्य है भोगी बनाना।
भोग चाहे सत्व हो, रज हो या तमस,अब बात आएगी प्रोग्रामर के आगे की सोच को समझने की।
उसका एक ही सिद्धांत है-
परमात्मा त्रिगुणातीत है, काला तीत है।
समय उसके हिसाब से चलता है वो समय के हिसाब से नहीं।

अपरा सिद्धि को सिर्फ शब्दब्रह्म की साधना के अंतर्गत गुरु द्वारा सत्य शिष्य को समझाया जाता है।
गुरु ही केवल मार्ग है जो प्रोग्रामर से विपरीत भाषा को जानते हैं। इस हेतु बिना सिद्ध गुरु-निर्देशन से साधना मुक्ति में बाधा बनती है। एक बार गुरुदेव से इस विषय पर बातचीत हुई। उन्होंने कहा था मूर्ख होते है जो कुंडलिनी के पीछे पडते हैं। कुंडलिनी के वश में नहीं होना है कुंडलिनी को अपने वश में करना है। चैतन्य को साधा नहीं जाता, चैतन्यमय हुआ जाता है। जब तक यह अवस्था नहीं है तब तक जीव अपनी आत्मा को कुंडलिनी के पाश में पाता है। कुंडलिनी जागरण में अनेकों सिद्धियों को बताया गया है किन्तु वो सिद्धि साधक को मोक्ष में भटका सकती है।

इसमें दो प्रकार की सिद्धि कार्य में रहती है-
एक परा सिद्धि और एक अपरा सिद्धि। परा सिद्धि के अंतर्गत देवता, यक्ष ,किन्नर, गंधर्व, भूत-प्रेत, डाकिनी-शाकिनी-लाकिनी-हाकिनी-काकिनी--इन तत्वों से जुडी हुई सिद्धि मिलती है। इसमें जीव के प्रमुख तत्वों के अनुसार यह सिद्धियां जाग्रत होती हैं।
साधक कौनसे तत्वों में अपनी साधना करता है उस हिसाब की सिद्धि होती है। 'पराशक्ति पिंडे सौ ब्रह्मांडे' के अनुसार ब्रह्मांड को एक पिंड समझो। उसके अंतर्गत जीव, देवता, मनुष्य सब आ जाते हैं। यह मूल पंचभूतो के माध्यम से 3 तत्वों से अनुसन्धान करता है।

यह तीन तत्व हैं- सत्व, रज और तम।
इसमें से कौन-से तत्व का जीव है,उस प्रकार की सिद्धि जाग्रत होती है।
ऐसीे परासिद्धि से वो एक काल- चक्र के सीमित ज्ञान काउद्बोधन कर सकता है। यह जाग्रति ने कितने सिद्ध आत्माओं को फंसा दिया है।
कौन बोल रहा है कौन-सी भाषा आ रही है? उस हिसाब की सिद्धि का पता चलता है।
इसमें मध्यमा, वैखरी, परा और पश्यन्ति की प्राप्ति होती है किन्तु वो सार या बोध की अवस्था की प्राप्ति नहीं कर पाता। ललिता सहस्त्र नाम् में भगवती और कुंडलिनी के नामो का विवरण आता है। उसमे एक मन्त्र आता है जिसमें पश्यन्ति पर देवता यानि देवताओ की वाणी समझना जिसे श्रुति कहते हैं। यह आकाशिक रिकॉर्ड का ज्ञान मिल जाता है किन्तु आकाश और अन्तरिक्ष वो ब्रह्मांड यानि पिंड का ही सत्य है। साधक अपने आप को यहाँ मोक्ष प्राप्त किया हुआ समझता है पर यह मोक्ष का छल है।
सात्विक वृतियों की सर्वोच्च सिद्धि मिलने पर इन्सान मुक्ति को समझता है, प्राप्त नहीं करता। यहां वह कुछ सिद्धियो को प्राप्त करके अपने आप को पद दे देता है। पर इससे आगे यानि हिरण्यगर्भ संकल्प के अंतर्गत यह एक छलावे के लिए रचना की गयी है कि
साधक को मुक्ति का भ्रम हो। जिसमे बहुत सारे सिद्ध फंस चुके। हमने कितने देवताओं के पीछे नाग का चित्र देखा है। उसका निर्देश यही है की वो कुंडलिनी के अंतर्गत मोक्ष को मिले है मूल मुक्ति इससे काफी दूर है। कृष्ण ने कालियानाग का दमन किया उसके ऊपर चढ़कर। हम इश्वर या देवता की लीला में फंस गए किन्तु यह नहीं सोचा कि बोध क्या है ?

हमारी आत्मा जो इश्वर है, जो काल रूपी कुंडलिनी से उपर है, मुक्त है। हमें यहा साधना कुंडलिनी जागरण की नहीं करनी बल्कि उससे मुक्त होकर उसका उद्धार करने की है। अब अपरा सिद्धि को देखो। यह भौतिक और वासनात्मक नहीं अपितु पराभौतिक और आध्यात्मिक है। परा-सिद्धि से आत्मा को प्रलय तक ही मुक्ति मिलती है और अपरा-सिद्धि सर्वदा मुक्ति के लिए है । प्रलय और महाप्रलय में परासिद्धि वाला आत्मा वापस अपने जीव और तत्व के भाव में आ जाता है। जब की अपरासिद्धि कभी नष्ट नहीं होती। वो जब भी जन्म लेती है वो वैरागयुक्त और काल-चक्र से मुक्त रहती है। उसका प्रयोजन मायाजाल में भेद करके मोक्ष के ज्ञान को प्रगट करना होता है। अपरा का महत्व इतना ही है कि परा इसके सामने तुच्छ है।

यही अपराशक्ति परब्रह्म की शक्ति होती है। गुरुतत्व-बोध,तत्वों का सारतत्व युक्त होती है। कौलमार्ग परा और अपरा दोनों ही सीद्धि का मार्ग है। उसके प्रणेता नादी गुरु हैं जो स्वयम प्रगट नाद रूप हो। नाद उनके हिसाब से चलता है। हमने कितने ब्रह्म पुरुषों के बारे में सुना है। वो कहते हैं कि अनेको ब्रह्मांड है, अनेको ब्रह्म हैं और ब्रह्म ही काल से मुक्त होता है। क्यूंकि अपरासिद्धि से कुंडलिनी को छोड़ आत्मा अपने मूल शब्दस्वरुप में आता है। मानो कोई कम्पनी का wi-fi नेटवर्क जहाँ जाओगे हमें ही पाओगे यह इश्वरीय शक्ति है। कण-कण में व्याप्त है।

आत्मा की मूल शक्ति शब्दब्रह्म है नकि कुंडलिनी।
कुंडलिनी काल का पाश है।वो बार- बार अपने ज़हर से इन्द्रिय रूपी गोकुल में तबाही करता है। नाद अनुसन्धान से ही अपरा प्रकृति उद्भव होती है।
इंद्र भी दास हो जाता है। देवता तुम्हारी सेवा में आ जाते हैं। ब्रह्मा तुम्हे समझने नीचे आते हैं। यह बहुत उच्चतम और भगवदीय अवस्था है। इसको मात्र गुरुसेवा और गुरुभक्ति से ही प्राप्त किया जाता है।


आदेश........