जीवन की प्रत्येक क्रिया तन्त्रोक्त क्रिया है॰यह प्रकृति,यह तारा मण्डल,मनुष्य का संबंध,चरित्र,विचार,भावनाये सब कुछ तो तंत्र से ही चल रहा है;जिसे हम जीवन तंत्र कहेते है॰जीवन मे कोई घटना आपको सूचना देकर नहीं आता है,क्योके सामान्य व्यक्ति मे इतना अधिक सामर्थ्य नहीं होता है के वह काल के गति को पहेचान सके,भविष्य का उसको ज्ञान हो,समय चक्र उसके अधीन हो ये बाते संभव ही नहीं,इसलिये हमे तंत्र की शक्ति को समजना आवश्यक है यही इस ब्लॉग का उद्देश्य है.
6 Dec 2020
दुर्लभ इंद्रजाल विद्या
28 Sept 2020
माँ भुवनेश्वरी महाविद्या
महाविद्याओं में चतुर्थ स्थान पर विद्यमान देवी भुवनेश्वरी’, त्रिभुवन (ब्रह्माण्ड) पालन एवं उत्पत्ति कर्ता।देवी भुवनेश्वरी,देवी
सम्पूर्ण जगत या तीनों लोकों की ईश्वरी देवी भुवनेश्वरी नाम की महा-शक्ति हैं तथा महाविद्याओं में इन्हें चौथा स्थान प्राप्त हैं। अपने नाम के अनुसार देवी त्रि-भुवन या तीनों लोकों के ईश्वरी या स्वामिनी हैं, देवी साक्षात सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को धारण करती हैं। सम्पूर्ण जगत के पालन पोषण का दाईत्व इन्हीं 'भुवनेश्वरी देवी' पर हैं, परिणामस्वरूप ये जगन-माता तथा जगत-धात्री के नाम से भी विख्यात हैं। पंच तत्व १. आकाश, २. वायु ३. पृथ्वी ४. अग्नि ५. जल, जिनसे इस सम्पूर्ण चराचर जगत के प्रत्येक जीवित तथा अजीवित तत्व का निर्माण होता हैं, वह सब इन्हीं देवी की शक्तियों द्वारा संचालित होती हैं। पञ्च तत्वों को इन्हीं, देवी भुवनेश्वरी ने निर्मित किया हैं, देवी कि इच्छानुसार ही चराचर ब्रह्माण्ड (तीनों लोकों) के समस्त तत्वों का निर्माण होता हैं। प्रकृति से सम्बंधित होने के कारण देवी की तुलना मूल प्रकृति से भी की जाती हैं। आद्या शक्ति, भुवनेश्वरी स्वरूप में भगवान शिव के समस्त लीला विलास की सहचरी हैं, सखी हैं। देवी नियंत्रक भी हैं तथा भूल करने वालों के लिए दंड का विधान भी तय करती हैं, इनके भुजा में व्याप्त अंकुश, नियंत्रक का प्रतीक हैं। जो विश्व को वमन करने हेतु वामा, शिवमय होने से ज्येष्ठा तथा कर्म नियंत्रक, जीवों को दण्डित करने के कारण रौद्री, प्रकृति का निरूपण करने से मूल-प्रकृति कही जाती हैं। भगवान शिव के वाम भाग को देवी भुवनेश्वरी के रूप में जाना जाता हैं तथा सदा शिव के सर्वेश्वर होने की योग्यता इन्हीं के संग होने से प्राप्त हैं।
पञ्च तत्वों की अधिष्ठात्री हैं देवी भुवनेश्वरी।
संपूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त समस्त जीवित तथा अजीवित वस्तुओं का
निर्माण मूल पञ्च तत्वों से ही होता हैं। १. आकाश, २. वायु ३. पृथ्वी ४.
अग्नि ५. जल, मूल-तत्व हैं जिनसे समस्त दिखने वाली तत्वों का निर्माण होता
हैं। देवता, राक्षस, वेद, प्रकृति, महासागर, पर्वत, जीव, जंतु, समस्त
वनस्पति इत्यादि समस्त भौतिक जगत इन्हीं पंच-तत्वों से सम्बद्ध हैं।
पञ्च-तत्वों का निरूपण एवं रचना इन्हीं भुवनेश्वरी देवी द्वारा ही हुआ हैं
तथा वह इन समस्त तत्वों की ईश्वरी या स्वामिनी हैं। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के
निर्वाह, पालन पोषण का दाईत्व इन्हीं देवी भुवनेश्वरी का हैं, सात करोड़
महा-मंत्र सर्वदा इनकी आराधना करने में तत्पर रहते हैं। देवी भक्तों को
समस्त प्रकार कि सिद्धियाँ तथा अभय प्रदान करती हैं।
देवी, ललित
के नाम से भी विख्यात हैं, परन्तु यह देवी ललित, श्री विद्या-ललित नहीं
हैं। भगवान शिव द्वारा दो शक्तियों का नाम ललिता रखा गया हैं, एक
‘पूर्वाम्नाय तथा दूसरी ऊर्ध्वाम्नाय’ द्वारा। ललिता जब त्रिपुरसुंदरी के
साथ होती हैं तो वह श्री विद्या-ललिता के नाम से जानी जाती हैं इनका
सम्बन्ध श्री कुल से हैं। ललिता जब भुवनेश्वरी के साथ होती हैं तो
भुवनेश्वरी-ललित
देवी भुवनेश्वरी का भौतिक स्वरूप
देवी भुवनेश्वरी, अत्यंत कोमल एवं सरल स्वभाव सम्पन्न हैं। देवी
भिन्न-भिन्न प्रकार के अमूल्य रत्नों से युक्त अलंकारों को धारण करती हैं,
स्वर्ण आभा युक्त उदित सूर्य के किरणों के समान कांति वाली देवी, कमल के
आसान पर विराजमान हैं तथा उगते सूर्य या सिंदूरी वर्ण से शोभिता हैं। देवी,
तीन नेत्रों से युक्त त्रिनेत्रा हैं जो की! इच्छा, काम तथा प्रजनन शक्ति
का प्रतिनिधित्व करती हैं। मंद-मंद मुस्कान वाली, अपने मस्तक पर अर्ध
चन्द्रमा धारण करने वाली देवी अत्यंत मनोहर प्रतीत होती हैं। देवी के स्तन
उभरे हुए तथा पूर्ण हैं, देवी चार भुजाओं से युक्त तथा पूर्ण शारीरिक गठन
वाली हैं। देवी अपने दो भुजाओं में पाश तथा अंकुश धारण करती हैं तथा अन्य
दो भुजाओं से वर तथा अभय मुद्रा प्रदर्शित करती हैं। देवी नाना प्रकार से
मूल्यवान रत्नों से जडें हुए मुक्ता के आभूषण धारण कर बहुत ही शांत और
सौम्य प्रतीत होता हैं।
देवी भुवनेश्वरी के प्रादुर्भाव से सम्बंधित कथा।
सृष्टि के प्रारम्भ में केवल स्वर्ग ही विद्यमान था, सूर्य केवल स्वर्ग
लोक में ही दिखाई देता था तथा उनकी किरणें स्वर्ग लोक तक ही सीमित थी।
समस्त ऋषियों तथा सोम देव ने सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड (ग्रह, नक्षत्र इत्यादि)
के निर्माण हेतु, सूर्य देव की आराधना की जिससे प्रसन्न हो सूर्य देव ने,
देवी भुवनेश्वरी की प्रेरणा से संपूर्ण ब्रह्माण्ड का निर्माण किया। उस काल
में देवी ही सर्व-शक्तिमान थी, देवी षोडशी ने सूर्य देव को वह शक्ति
प्रदान तथा मार्गदर्शन किया, जिसके परिणामस्वरूप सूर्य देव ने संपूर्ण
ब्रह्माण्ड की रचना की। देवी षोडशी की वह प्रेरणा उस समय से भुवनेश्वरी
(सम्पूर्ण जगत की ईश्वरी) नाम से प्रसिद्ध हुई। देवी का सम्बन्ध इस चराचर
दृष्टि-गोचर समस्त ब्रह्माण्ड से हैं, इनके नाम दो शब्दों के मेल से बना
हैं भुवन + ईश्वरी, जिसका अभिप्राय हैं समस्त भुवन की ईश्वरी।
देवी भुवनेश्वरी से सम्बंधित अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य-
देवी भुवनेश्वरी अपने अन्य नाना नमो से भी प्रसिद्ध हैं :
१. मूल प्रकृति, देवी इस स्वरूप में स्वयं प्रकृति रूप में विद्यमान हैं, समस्त प्राकृतिक स्वरूप इन्हीं का रूप हैं।
२. सर्वेश्वरी या सर्वेशी, देवी इस स्वरूप में, सम्पूर्ण चराचर जगत की ईश्वरी या विधाता हैं।
३. सर्वरूपा, देवी इस स्वरूप में, ब्रह्मांड के प्रत्येक तत्व में विद्यमान हैं।
४. विश्वरूपा, संपूर्ण विश्व का स्वरूप, इन्हीं देवी भुवनेश्वरी के रूप में स्थित हैं।
५. जगन-माता, सम्पूर्ण जगत, तीनों लोकों की देवी जन्म-दात्री हैं माता हैं।
६. जगत-धात्री, देवी इस रूप में सम्पूर्ण जगत को धारण तथा पालन पोषण करती हैं।
देवी, 'पञ्च परमेश्वरी' नाम से विख्यात हैं। (मूल पांच तत्वों की ईश्वरी)
'देवी काली और भुवनेशी या भुवनेश्वरी' प्रकारांतर से अभेद हैं काली का लाल
वर्ण स्वरूप ही भुवनेश्वरी हैं। दुर्गम नामक दैत्य के अत्याचारों से
संतृप्त हो, सभी देवता, ऋषि तथा ब्राह्मणों ने हिमालय पर जा, सर्वकारण
स्वरूपा देवी भुवनेश्वरी की ही आराधना की थी। देवताओं, ऋषियों तथा
ब्राह्मणों के आराधना-स्तुति से संतुष्ट हो देवी, अपने हाथों में बाण, कमल
पुष्प तथा शाक-मूल धारण किये हुए प्रकट हुई थी। देवी ने अपने नेत्रों से
सहस्रों अश्रु जल धारा प्रकट की तथा इस जल से सम्पूर्ण भू-मंडल के समस्त
प्राणी तृप्त हुए। समुद्रों तथा नदियों में जल भर गया तथा समस्त वनस्पति
सिंचित हुई। अपने हाथों में धारण की हुई, शाक-मूलों से इन्होंने सम्पूर्ण
प्राणियों का पोषण किया, तभी से ये शाकम्भरी नाम से भी प्रसिद्ध हुई।
इन्होंने ही दुर्गमासुर नामक दैत्य का वध कर समस्त जगत को भय मुक्त, इस
कारण देवी दुर्गा नाम से प्रसिद्ध हुई, जो दुर्गम संकटों से अपने भक्तों को
मुक्त करती हैं।
भुवनेश्वरी अवतार धारण कर सम्पूर्ण जगत का निर्माण तथा सञ्चालन, तथा भगवान विष्णु, 'ब्रह्मा' तथा शिव को जल प्रलय के पश्चात अपना कार्य भर प्रदान करना।
श्रीमद देवी-भागवत पुराण के अनुसार! राजा
जनमेजय ने व्यास जी से 'ब्रह्मा', विष्णु, शंकर की आदि शक्ति, से सम्बन्ध
तथा विश्व के उत्पत्ति के कारण हेतु प्रश्न पूछे जाने पर, व्यास जी द्वारा
जो वर्णन प्रस्तुत किया गया वह निम्नलिखित हैं।
एक बार व्यास जी के मन
में जिज्ञासा जागृत हुई कि, "पृथ्वी या इस सम्पूर्ण चराचर जगत का सृष्टि
कर्ता कौन हैं?" इस निमित्त उन्होंने नारद जी से प्रश्न किया। नारद जी ने
व्यास जी से कहा की! "एक बार उनके मन भी ऐसे ही जिज्ञासा जागृत हुई
थीं।"तदनंतर, नारद जी ब्रह्म लोक स्थित अपने पिता ब्रह्मा जी के पास गए और
उन्होंने उनसे पूछा!"ब्रह्मा, विष्णु और महेश, में किसके द्वारा इस चराचर
ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति हुई हैं, सर्वश्रेष्ठ ईश्वर कौन हैं ?"
ब्रह्मा जी ने नारद से कहा! प्राचीन काल में जल प्रलय पश्चात केवल पञ्च महा-भूतों की उत्पत्ति हुई, जिसके कारण वे (ब्रह्मा जी) कमल से आविर्भूत हुए। उस समय सूर्य, चन्द्र, पर्वत इत्यादि स्थूल जगत लुप्त था तथा चारों ओर केवल जल ही जल दिखाई देता था। ब्रह्मा जी कमल-कर्णिका पर ही आसन जमाये विचरने लगे। उन्हें यह ज्ञात नहीं था की इस महा सागर के जल से उनका प्रादुर्भाव कैसे हुआ तथा उनका निर्माण करने वाला तथा पालन करने वाला कौन हैं? एक बार, ब्रह्मा जी ने दृढ़ निश्चय किया की वे अपने कमल के आसन का मूल आधार देखेंगे, जिससे उन्हें मूल भूमि मिल जाएगी। तदनंतर, उन्होंने जल में उतर-कर पद्म के मूल को ढूंढने का प्रयास किया, परन्तु वे अपने कमल-आसन के मूल तक नहीं पहुँच पाये। तक्षण ही आकाशवाणी हुई की, तुम तपस्या करो! तदनंतर, ब्रह्मा जी ने कमल के आसन पर बैठ हजारों वर्ष तक तपस्या की। कुछ काल पश्चात पुनः आकाशवाणी हुई सृजन करो, परन्तु ब्रह्मा जी समझ नहीं पाये की क्या सृजन करें तथा कैसे करें! उनके द्वारा ऐसा विचार करते हुए, उनके सनमुख 'मधु तथा कैटभ' नाम के दो महा दैत्य उपस्थित हुए तथा वे दोनों उनसे युद्ध करना चाहते थे, जिसे देख ब्रह्मा जी भयभीत हो गए। ब्रह्मा जी अपने आसन कमल के नाल का आश्रय ले महासागर में उतरे, जहाँ उन्होंने एक अत्यंत सुन्दर एवं अद्भुत पुरुष को देखा, जो मेघ के समान श्याम वर्ण के थे तथा उन्होंने अपने हाथों में शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण कर रखा था। शेष नाग की शय्या पर शयन करते हुए ब्रह्मा जी ने श्री हरि विष्णु को देखा। उन्हें देख ब्रह्मा जी के मन में जिज्ञासा जागृत हुई और वे सहायता हेतु आदि शक्ति देवी की स्तुति करने लगे, जिनकी तपस्या में वे सर्वदा निमग्न रहते थे। परिणामस्वरूप, निद्रा स्वरूपी भगवान विष्णु की योग माया शक्ति आदि शक्ति महामाया, उनके शरीर से उद्भूत हुई। वे देवी दिव्य अलंकार, आभूषण, वस्त्र इत्यादि धारण किये हुए थी तथा आकाश में जा विराजित हुई। तदनंतर, भगवान विष्णु ने निद्रा का त्याग किया तथा जागृत हुए, तत्पश्चात उन्होंने पाँच हजार वर्षों तक मधु-कैटभ नामक महा दैत्यों से युद्ध किया। बहुत अधिक समय तक युद्ध करते हुए भगवान विष्णु थक गए, वे अकेले ही युद्ध कर रहे थे, इसके विपरीत दोनों दैत्य भ्राता एक-एक कर युद्ध करते थे। अंततः उन्होंने अपने अन्तः कारण की शक्ति योगमाया आद्या शक्ति से सहायता हेतु प्रार्थना की, देवी ने उन्हें आश्वस्त किया कि वे उन दोनों दैत्यों को अपनी माया से मोहित कर देंगी। योगमाया आद्या शक्ति की माया से मोहित हो दैत्य भ्राता भगवान विष्णु से कहने लगे! "हम दोनों तुम्हारे वीरता पर बहुत प्रसन्न हैं, हमसे वर प्रार्थना करो!" भगवान विष्णु ने दैत्य भ्राताओं से कहा! "मैं केवल इतना ही चाहता हूँ की तुम दोनों अब मेरे हाथों से मारे जाओ।" दैत्य भ्राताओं ने देखा की चारों ओर केवल जल ही जल हैं तथा भगवान विष्णु से कहा! "हमारा वध ऐसे स्थान पर करो जहाँ न ही जल हो और न ही स्थल।" भगवान विष्णु ने दोनों दैत्यों को अपनी जंघा पर रख कर अपने चक्र से उनके मस्तक को देह से लग कर दिया। इस प्रकार उन्होंने मधु-कैटभ का वध किया, परन्तु वे केवल निमित्त मात्र ही थे, उस समय उनकी संहारक शक्ति से शंकर जी की उत्पत्ति हुई, जो संहार के प्रतीक हैं।
तदनंतर, 'ब्रह्मा', विष्णु तथा शंकर द्वारा, देवी आदि शक्ति योगनिद्रा महामाया की स्तुति की गई, जिससे प्रसन्न होकर आदि शक्ति ने ब्रह्मा जी को सृजन, विष्णु को पालन तथा शंकर को संहार के दाईत्व निर्वाह करने की आज्ञा दी। तत्पश्चात, ब्रह्मा जी ने देवी आदि शक्ति से प्रश्न किया गया कि! "अभी चारों ओर केवल जल ही जल फैला हुआ हैं, पञ्च-तत्व, गुण, तन-मात्राएँ तथा इन्द्रियां, कुछ भी व्याप्त नहीं हैं तथापि तीनों देव शक्ति-हीन हैं।" देवी ने मुसकुराते हुए उस स्थान पर एक सुन्दर विमान को प्रस्तुत किया और तीनों देवताओं को विमान पर बैठ अद्भुत चमत्कार देखने का आग्रह किया गया, तीनों देवों के विमान पर आसीन होने के पश्चात, वह देवी-विमान आकाश में उड़ने लगा।
मन के वेग के समान वह दिव्य तथा सुन्दर विमान उड़कर ऐसे स्थान पर पहुंचा जहाँ जल नहीं था, यह देख तीनों देवों को महान आश्चर्य हुआ। उस स्थान पर नर-नारी, वन-उपवन, पशु-पक्षी, भूमि-पर्वत, नदियाँ-झरने इत्यादि विद्यमान थे। उस नगर को देखकर तीनों महा-देवों को लगा की वे स्वर्ग में आ गए हैं। थोड़े ही समय पश्चात, वह विमान पुनः आकाश में उड़ गया तथा एक ऐसे स्थान पर गया, जहाँ! ऐरावत हाथी और मेनका आदि अप्सराओं के समूह नृत्य प्रदर्शित कर रही थी, सैकड़ों गन्धर्व, विद्याधर, यक्ष रमण कर रहे थे, वहाँ इंद्र भी अपनी पत्नी सची के साथ विद्यमान थे। वहाँ कुबेर, वरुण, यम, सूर्य, अग्नि इत्यादि अन्य देवताओं को देख तीनों को महान आश्चर्य हुआ। तदनंतर, तीनों देवताओं का विमान ब्रह्म-लोक की ओर बड़ा, वहाँ पर सभी देवताओं से वन्दित ब्रह्मा जी को विद्यमान देख, तीनों देव विस्मय में पर पड़ गए। विष्णु तथा शंकर ने ब्रह्मा से पूछा, यह ब्रह्मा कौन हैं ? ब्रह्मा जी ने उत्तर दिया! "मैं इन्हें नहीं जनता हूँ, मैं स्वयं भ्रमित हूँ।" तदनंतर, वह विमान कैलाश पर्वत पर पहुंचा, वहां तीनों ने वृषभ पर आरूढ़, मस्तक पर अर्ध चन्द्र धारण किये हुए, पञ्च मुख तथा दस भुजाओं वाले शंकर जी को देखा। जो व्यग्र चर्म पहने हुए थे तथा गणेश और कार्तिक उनके अंग रक्षक रूप में विद्यमान थे, यह देख पुनः तीनों अत्यंत विस्मय में पड़ गये। तदनंतर उनका विमान कैलाश से भगवान विष्णु के वैकुण्ठ लोक में जा पहुंचा। पक्षी-राज गरुड़ के पीठ पर आरूढ़, श्याम वर्ण, चार भुजा वाले, दिव्य अलंकारों से अलंकृत भगवान विष्णु को देख सभी को महान आश्चर्य हुआ, सभी विस्मय में पड़ गए तथा एक दूसरे को देखने लगे। इसके बाद पुनः वह विमान वायु की गति से चलने लगा तथा एक सागर के तट पर पहुंचा। वहाँ का दृश्य अत्यंत मनोहर था तथा नाना प्रकार के पुष्प वाटिकाओं से सुसज्जित था, तीनों महा-देवों ने रत्नमालाओं एवं विभिन्न प्रकार के अमूल्य रत्नों से विभूषित, पलंग पर एक दिव्यांगना को बैठे हुए देखा। उन देवी ने रक्त-पुष्पों की माला तथा रक्ताम्बर धारण कर रखी थीं। वर, पाश, अंकुश और अभय मुद्रा धारण किये हुए, देवी भुवनेश्वरी, त्रि-देवो को सनमुख दृष्टि-गोचर हुई, जो सहस्रों उदित सूर्य के प्रकाश के समान कान्तिमयी थी। वास्तव में आदि शक्ति महामायाही भुवनेश्वरी अवतार में, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का सञ्चालन तथा निर्माण करती हैं।
देवी समस्त प्रकार के श्रृंगार एवं भव्य परिधानों से सुसज्जित थी तथा उनके मुख मंडल पर मंद मुसकान शोभित हो रही थी। उन भगवती भुवनेश्वरी को देख त्रि-देव आश्चर्य चकित एवं स्तब्ध रह गए तथा सोचने लगे, यह देवी कौन हैं? ब्रह्मा, विष्णु तथा महेशसोचने लगे कि! "न तो यह अप्सरा हैं, न ही गन्धर्वी और न ही देवांगना!" यह सोचते हुए वे तीनो संशय में पड़ गए। तब उन सुन्दर हास्वली हृल्लेखा देवी के सम्बन्ध में, भगवान विष्णु ने अपने अनुभव से शंकर तथा ब्रह्मा जी से कहा! "यह साक्षात् देवी जगदम्बा महामाया हैं साथ ही यह देवी हम तीनों तथा सम्पूर्ण चराचर जगत की कारण रूपा हैं। देवी, महाविद्या शाश्वत मूल प्रकृति रूपा हैं, सभी-की आदि स्वरूप ईश्वरी हैं तथा इन योग-माया महाशक्ति को योग मार्ग से ही जाना जा सकता हैं। मूल प्रकृति स्वरूपी भगवती महामाया परम-पुरुष के सहयोग से ब्रह्माण्ड की रचना कर, परमात्मा के सनमुख उसे उपस्थित करती हैं।" तदनंतर, तीनों देव भगवती भुवनेश्वरी की स्तुति करने के निमित्त उनके चरणों के निकट गए। जैसे ही ब्रह्मा, विष्णु तथा शंकर, विमान से उतरकर देवी के सनमुख जाने लगे, देवी ने उन्हें स्त्री-रूप में परिणीत कर दिया तथा वे भी नाना प्रकार के आभूषणों से अलंकृत तथा वस्त्र धारण किये हुए थे। तदनंतर, तीनों देवी के सनमुख जा खड़े हो गए, उन्होंने देखा की असंख्य सुन्दर स्त्रियाँ देवी की सेवा में सेवारत थी। तीनों देवों ने देवी के चरण-कमल के नख में सम्पूर्ण स्थावर-जंगम ब्रह्माण्ड को देखा, समस्त देवता, ब्रह्मा, विष्णु, शिव, समुद्र, पर्वत, नदियां, अप्सरायें, वसु, अश्विनी-कुमार, पशु-पक्षी, राक्षस गण इत्यादि सभी, देवी के नख में प्रदर्शित हो रहे थे। वैकुण्ठ, ब्रह्मलोक, कैलाश, स्वर्ग, पृथ्वी इत्यादि समस्त लोक देवी के पद नख में विराजमान थे। तब त्रिदेव यह समझ गए की देवी सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की जननी हैं।
माँ जगतजननी भुवनेश्वरी जी के कृपा प्राप्ति हेतु आपको निःशुल्क मंत्र दीक्षा नवरात्रि पर दी जाएगी । साथ मे आपको उनका गोपनीय मंत्र जाप की विधि भी दी जाएगी । दीक्षा प्राप्त करने हेतु मुझे व्हाट्सएप पर अपना नाम और फ़ोटो भेज दीजिए, आपको 1% भी चिंतित होने की आवश्यकता नही है,यह क्रिया पूर्णतः निःशुल्क है । जब आपको इस क्रिया के बाद अनुभव होने लगेंगे तब माँ भुवनेश्वरी जी के नाम से एक पौधा लगा दीजियेगा और पौधा ऐसा हो जो भविष्य में एक विशालकाय वृक्ष बने । आपका पौधा लगाना ही मेरे लिए संतुष्टि है ।
आदेश.......💐
17 Aug 2020
रजिया बेगम शाबर मंत्र साधना ।
3 Jul 2020
गुरुपूर्णिमा साधना
ऐसा कोई शाबर मंत्र ही नही है जिसका जाप गुरुपूर्णिमा के पावन अवसर पर करने से सिद्धी ना मिले,जरा सोचिए 365 दिनों में कई सारे मुहूर्त या कुछ ग्रहण आते है और उनमें शाबर मंत्र सिद्ध हो या ना हो परंतु गुरुपूर्णिमा को होते है, इसका अर्थ यही है के साधक और शिष्यों के जीवन मे गुरुपूर्णिमा से बढ़कर कोई पावन अवसर नही होता है ।
11 Jun 2020
गुरु दीक्षा और दक्षिणा.
मेरी गुरु दीक्षा देने की इच्छा हो रही है परंतु गुरु बनने की इच्छा नही है । दीक्षा मैं देने के लिए तय्यार हु और आपको गुरु मंत्र गोरखनाथ जी का दिया जाएगा इसलिए आपके गुरु गोरखनाथ जी ही होंगे । गुरु मंत्र नाथ सम्प्रदाय का है जो एक रहस्यमयी मंत्र है,इस मंत्र का रहस्य जो भी साधक जानेगा वही गुरु गोरखनाथ जी को प्रसन्न कर दर्शन का अवसर प्राप्त करेंगा ।
8 Jun 2020
भविष्य को एक ही ग्रह बदल सकता है,नवग्रह नही.
आज बात ज्योतिष के विषय पर करते है और वैसे भी हमारे देश मे यह विषय प्राचीन है,यह एक ऐसा विषय है जिस पर हमेशा से ही नये नये शोध होते रहते है । ज्योतिष शास्त्र एक अपूर्ण शास्त्र है और यह शास्त्र पूर्ण तरह से कभी भी लिखा नही जा सकता है ।
निशुल्क में कुछ भी बता भी दु तो आपको उसका कोई महत्व नही रहेगा,यह मैं भली भाति जानता हूं ।
2 May 2020
स्वयं सिद्ध नऊ गुणि साबर मंत्र विद्या.
"लोग भूखे है,भिखारी नही
सहयोग करे,शर्मिंदा नही"
+91-8421522368
9 Apr 2020
भूत भविष्य दर्शन साबर मंत्र सिद्धी साधना.
आज आपको अद्वितीय शाबर मंत्र के बारे में बता रहा हु जिससे आप भुत भविष्य वर्तमान दर्शन सिद्धि प्राप्त कर सकते हो,यह साधना इसलिए अद्वितीय है क्योंकि यह नजर पिशाच का मंत्र है और नजर पिशाच कभी भी मनुष्य जाति को तकलीफ नही देते है साथ मे किसी भी प्रकार की कोई हानि नही पोहचाते है । इस साधना में किसी भी प्रकार के साधना सामग्री की आवश्यकता नही है । इस साधना में सिर्फ रात्रिकालीन मंत्र जाप नित्य करना आवश्यक है । साधना समाप्ति के बाद साधक आंख बंद करके किसी भी व्यक्ति का ध्यान करता है तो साधक को उस व्यक्ति के भूत भविष्य वर्तमान का दर्शन होता है । इस सिद्धी से साधक चलते फिरते भी मंत्र का जाप करके किसी भी व्यक्ति के बारे में कुछ भी जान सकता है ।
snpts1984@gmail.com
आर्थिक सहाय्यता हेतु आपसे कोई जबर्दस्ती नही की जा रही है,आप सोच विचार करके अपने हिसाब से दान कीजिएगा, मंत्र अमूल्य है इसलिए मंत्र का मूल्य नही लगाया जा रहा है,जो भी आपको ठीक लगे उतना ही दान करे ।
आदेश.......
20 Feb 2020
गोरखरुद्राक्ष माला
एकमप्यक्षरं यस्तु गुरुः शिष्ये निवेदयेत् ।
पृथिव्यां नास्ति तद् द्रव्यं यद्दत्वा ह्यनृणी भवेत् ॥
अर्थ :
गुरु शिष्य को जो एखाद अक्षर भी कहे, तो उसके बदले में पृथ्वी का ऐसा कोई धन नहीं, जो देकर गुरु के ऋण में से मुक्त हो सकें ।
यह मेरा प्रिय श्लोक है और इसी श्लोक के वजेसे मैं अपने जीवन मे गुरु मुख से प्राप्त प्रत्येक अक्षर का महत्व समझ सका । मेरे गुरु ने मुझे शाबर मंत्रों का श्रेष्ठ ज्ञान प्रदान किया,ऐसा दुर्लभ ज्ञान प्राप्त करने हेतु मुझे सर्वप्रथम गुरु चरणों मे समर्पित होना पड़ा । गुरु से प्राप्त सभी आज्ञाओ का मान रखते हुए उन्हें पालन करना एक अलग प्रकार का कर्तव्य होता है और इस कर्तव्य को ही कर्म बना लिया जाए तो गुरु अवश्य ही प्रसन्न होकर शिष्य को अपना सब कुछ प्रदान कर देते है ।
गुरुं विना भाति न चैव शिष्यः शमेन विद्या नगरी जनेन ॥
इसलिए जीवन मे गुरु की आवश्यकता बहोत जरूरी है,जीवन मे एक बार तो गुरु बनाने ही चाहिए ताकि सम्पूर्ण जीवनभर आपको गुरु मार्गदर्शन करते रहे । संसार की समस्त विद्याएं गुरु मुख से प्राप्त ना हो तो वह एक प्रकार का मोह और माया है जो आपको सिद्धी के चक्कर कटवाती है । गुरु मुखी मंत्र स्वयं चैतन्य और जागृत होते है,जिनका गुरु के निर्देशानुसार जाप करने से पूर्ण सफलता मिल सकती है । जिन्होंने जीवन मे गुरु दीक्षा प्राप्त नही की हो उन्हें शाबर गुरु सिद्धी मंत्र का जाप अवश्य करना चाहिए ।
अब हम बात करेंगे " जिन्होंने जीवन मे गुरु दीक्षा प्राप्त की है उनके लिए " क्युके आज का विषय रहस्यमय है,यह आर्टिकल नए-पुराने साधको के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है । सभी तंत्र साधको के पास वह अद्वितीय मंत्र होना चाहिए जिससे उनके गुरु जागे उनके दादा गुरु भी जागे मतलब गुरु परंपरा को जागृत करना ताकि आपके मार्गदर्शन एवं साधना सिद्धी हेतु गुरुत्व जागृत होकर आपको सफलता मीले । एक ऐसा मंत्र होना चाहिए जिससे गुरुमुखी मंत्र विद्या भी शीघ्र जागृत हो क्योके बहोत सारे आजकल के गुरुओं ने भी मंत्र विद्या उनके गुरु के मतलब आपके दादा गुरु के मुख से प्राप्त नही की हुई है । हो सकता है आपके दादा गुरु ने भी मंत्र विद्या गुरुमुख से प्राप्त ना कि हो इसलिए आपको भी मंत्र सिद्धी में परेशानीया आ रही होंगी । गुरु शिष्य को गुरुमंत्र तो दे देते है परंतु शिष्य को तुरंत स्वीकार नही करते है,कभी कभी शिष्य को शिष्य रूप में स्वीकार करने में गुरुओ को अधिक समय लग जाता है इसलिए शिष्यों का समय मंत्र सिद्धि में ज्यादा खर्च होता है और मंत्र सिद्धी असफलता के कारण शिष्य गुरु से दूरी बना लेता है, इसलिए एक ऐसा भी मंत्र हो कि संसार मे जो गुरुत्व की ऊर्जा है वह हमें शिष्य रूप में स्वीकार करे । साथ मे एक ऐसा भी मंत्र हो जिससे प्राप्त किया हुआ गुरुमंत्र भी चैतन्य हो जाये ताकि आप गुरुमंत्र जाप के माध्यम से अनेकानेक साधनाओ में पूर्ण सफलता प्राप्त कर सको ।
ऐसे मंत्र सिर्फ शाबर मंत्र विद्या में ही प्राप्त हो सकत्ये है अन्यत्र कही नही,ऊपर मैने चार प्रकार के मंत्रो का उल्लेख किया है जो प्रत्येक साधक के लिए अमृत से भी बढ़कर है । शाबर मंत्र विद्याओ में इस चारो उल्लेखोंका एक ही मंत्र है,जिससे गुरु-महागुरु जागृत होते है,यहां महागुरु का अर्थ दादा गुरु होता है । जिससे गुरुमुखी गुरु विद्या सिद्ध होती है,ब्रम्हांडिय गुरुत्व की महान ऊर्जा साधक को शिष्य रूप में स्वीकार करती है,जिससे गुरु से प्राप्त गुरुमंत्र भी चैतन्य होता है । यह शाबर मंत्र अत्यंत दुर्लभ है और इस मंत्र को प्राप्त करने से साधक को संसार के सभी शाबर मंत्र साधनाओ में सफलता मिलती है । इस मंत्र का साधक को 1100 बार जाप करना आवश्यक होता है,साधना में साधक को पीले वस्त्र और आसन कि भी आवश्यकता होती है,साधक का मुख उत्तर दिशा में हो,साधना करते समय गाय के घी का ही इस्तेमाल करे और सुगंधित धूपबत्ती लगाकर वातावरण को अनुकूल करे । साधना किसी भी सोमवार या गुरुवार से प्रारंभ कर सकते है,जाप का समय सुबह या फिर रात्रि में ही मान्य रहेगा दोपहर में कदापी नही । मंत्र जाप हेतु गुरु गोरखनाथ जी के गुरुभक्ति मंत्र से ही प्राण-प्रतिष्ठित माला का प्रयोग करने से सफलता मिलती है,रुद्राक्ष के माला पर शाबर गुरुभक्ति मंत्र का जाप किया जाता है जिससे माला में गोरखनाथ जी के शक्ति का तत्व समाहित होता है । इस माला को हमारे यहां "गोरखरुद्राक्ष माला" कहते है जो संसार के सभी शाबर मंत्रो में सिद्धी हेतु पूर्ण सहाय्यक है । गोरखरुद्राक्ष माला बनाने हेतु सर्वप्रथम सर्वश्रेष्ठ दिन का महत्व माना जाता है और इस माला को बनाने हेतु शिवरात्रि या फिर महाशिवरात्रि सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है । इस वर्ष आनेवाली महाशिवरात्रि पर मैं कुछ मालाएं बनाने का संकल्प ले रहा हु और इस माला को बनाने में तीन दिन का समय लगता है । यह माला आपको 1190/-रुपये में प्रदान की जाएगी,जिससे पार्सल का खर्च हमारे यहां से किया जाएगा,यह एक छोटे प्रकार के रुद्राक्ष की जाप करने हेतु माला है और इस माला को आप चाहे तो धारण भी कर सकते है ।
नोट:-मंत्र माला के साथ दिया जाएगा ताकि आप सही तरह से विधि-विधान के साथ मंत्र जाप करके सफलता प्राप्त कर सके और मंत्र की गोपनीयता भी गोपनीय रह सके ।
माला की न्यौच्छावर राशि प्रदान करने हेतु आप व्हाट्सएप पर बैंक एकाउंट डिटेल्स मांग सकते है या फिर Paytm से भी धनराशि दे सकते है ।
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आदेश.......
2 Jan 2020
डाकिनी प्रत्यक्षीकरण साबर मंत्र
एक उग्र आलौकिक शक्ति डाकिनी.... डाकिनी, साकिनी, जल डंकिनी, थल डंकिनी के बारे में हम प्राय कभी ना कभी, कही ना कही सुनते रहते है । पर हमे इन शक्तियों के बारे में कुछ भी पता नही है । आखिर ये क्या है ? इनकी शक्ति क्या है ? तंत्र जगत में डाकिनी का नाम अति प्रचलित है । प्राय मनुष्य डाकिनी नाम से परिचित हैं । डाकिनी कहते ही मानसपटल में एक उग्र स्वरुप की कृति मष्तिष्क में उत्पन्न होने लगती है । वास्तव में यह ऊर्जा का एक अति उग्र स्वरुप है । डाकिनी की कई परिभाषाएं हैं । एक ऐसी शक्ति जो "डाक ले जाए" ।
इसका स्वरुप अति उग्र हो जाता है । इस रूप में माधुर्य, कोमलताका अभाव होता है,सिद्धि के समय यह पहले साधक की ये बहुत परीक्षा लेती है,साधक को हर तरीके से आजमाती है,उसे डराती भी है । फिर तरह तरह के मोहक रूपों में साधक को भोग के लिए प्रेरित करती है,यद्यपि मूल रूप से यह उग्र और क्रूर शक्ति है इसलिए बिना रक्षा कवच धारण किये साधना ना करे । इसके भय और प्रलोभन से साधक बच गया तो सिद्धि का मार्ग आसान हो जाता है । मस्तिष्क को शून्य कर के या पूर्ण विवेक को त्यागकर निर्मल भाव में डूबकर ही साधना पुर्ण किया जा सकता है । डाकिनी और काली में व्यावहारिक अंतर है,जबकि यह शक्ति काली के अंतर्गत ही आती है । इस शक्ति को जगाना अति आवश्यक है , जबकि काली एक जाग्रत देवी शक्ति हैं । डाकिनी की साधना में कामभाव की पूर्णतया वर्ज होता है । तंत्र में एक और डाकिनी की साधना होती है जो अधिकतर वाममार्ग में साधित होती है ।
यह डाकिनी प्रकृति की ऋणात्मक ऊर्जा से उत्पन्न एक स्थायी गुण है और निश्चित आकृति में दिखाई देती है । इसका स्वरुप सुन्दर और मोहक होता है ,यह पृथ्वी पर स्वतंत्र शक्ति के रूप में पाई जाती है । इसकी साधना अघोरियों और कापालिकों में अति प्रचलित है । यह बहुत शक्तिशाली शक्ति है और सिद्ध हो जाने पर साधक का मार्ग आसान हो जाता है । यद्यपि साधना में थोड़ी सी चूक होने अथवा साधक के साधना समय में थोडा सा भी कमजोर पड़ने पर वह शक्ति साधक को ख़त्म कर देती है , यह भूत-प्रेत- पिशाच-ब्रह्म-जिन्न आदि उन्नत शक्ति होती है । यह कभी-कभी खुद किसी पर कृपा कर सकती है और कभी किसी पर स्वयमेव आसक्त भी हो जाती है । इसके आसक्त होने पर सब काम रुक जाता है और उसका विनास होने लगता है । इसका स्वरुप एक सुन्दर, गौरवर्णीय, तीखे नाकनक्शे वाली युवती की जैसी होती है । जो काले कपडे में ही अधिकतर दिखती है ।
काशी के तंत्र जगत में इसकी साधना, विचरण और प्रभाव का विवरण ग्रंथो में मिलता है । इस शक्ति को केवल वशीभूत किया जा सकता है । इसको नष्ट नहीं किया जा सकता, यह सदैव व्याप्त रहने वाली शक्ति है । जो व्यक्ति विशेष के लिए लाभप्रद भी हो सकती है और हानिकारक भी , इसे नकारात्मक नहीं कहा जा सकता , अपितु यह ऋणात्मक शक्ति ही होती है । सामान्यतया यह नदी-सरोवर के किनारों, घाटों, शमशानों, तंत्र पीठों, एकांत साधना स्थलों आदि पर विचरण कर हैं ।