26 Oct 2021

दीपावली सम्पूर्ण लक्ष्मी पूजन एवं मंत्र विधान.

दीपावली की आप सभी को बहोत बहोत शुभकामनाएं
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माँ भगवती आप सभी पर कृपा करें इसी कामना के साथ दीपावली सम्पूर्ण लक्ष्मी पूजन दिया जा रहा है-

भगवती श्री-लक्ष्मी का विधिवत पूजन जिसमे ऋद्धि-सिद्धि, शुभ-लाभ का पूजन समाहित है | 

श्रीश्चते लक्ष्मीश्च पत्न्यां बहोरात्रे पार्श्वे नक्षत्राणि 
रूप मश्विनो! इष्णन्निषाणां मुम्म ईषाणा सर्वलोकम्म ईषाणा | 

हे जगदीश्वर! ये समस्त ऐश्वर्य और समग्र शोभा अर्थात 'लक्ष्मी' और 'श्री' दोनों ही आपकी पत्नी तुल्य हैं, दिन और रात आपकी सृष्टि में विचरण करते रहते हैं, सूर्य चंद्र आपके मुख हैं | नक्षत्र आपके रूप है, मैं आपसे समस्त सुखों की कामना करता हूं |

यही प्रश्न हजारों वर्ष पहले हमारे ऋषि-मुनियों के मन में भी अवश्य आया होगा, तभी उन्होनें लक्ष्मी की पूर्ण व्याख्या की | प्रारम्भ के श्लोक में यही विवरण आया है कि लक्ष्मी, जो 'श्री' से भिन्न होते हुए भी "श्री" का ही स्वरुप हैं, जो पालनकर्ता विष्णु के साथ रहती हैं, जिनके चारों ओर सारे नक्षत्र, तारे, विचरण करते हैं, जो सारे लोकों में विद्यमान हैं, उस 'श्री'का मैं वन्दन करता हूं |

अर्थात 'श्री' ही मूल रूप से लक्ष्मी हैं और इसीलिए हमारी संस्कृति में  'मिस्टर' की जगह 'श्री' लिखा जाता है|  अर्थात वह व्यक्ति, जो श्री से युक्त है, उसी के नाम के आगे 'श्री' लगाकर सम्बोधित किया जाता है|

'श्री सूक्त' जिसे 'लक्ष्मी सूक्त' भी कहा जाता है, उसमें लक्ष्मी का श्री रूप से ही प्रार्थना की गई है, जो वात्सल्यमयी हैं,धन-धान्य, संतान देने वाली हैं, जो मन और वाणी को दीप्त करती हैं, जिनके आने से दानशीलता प्राप्त होती है, जो वनस्पति और वृक्षों में स्थित हैं, जो कुबेर और अग्नि अर्थात तेजस्विता प्रदान करने वाली हैं, जो जीवन में परिश्रम का ज्ञान कराती हैं, जिसकी कृपा से मन में शुद्ध संकल्प और वाणी में सत्यता आती है,जो शरीर में तरलता और पुष्टि प्रदान करने वाली हैं, उस श्री के सांसारिक जीवन में स्थायी स्थान के लिए बार-बार प्रार्थना और नमन किया गया है |

श्री सूक्त में एक विशेष बात यह कही गई है कि लक्ष्मी की जेष्ट भगिनी अर्थात अलक्ष्मी अर्थात अलक्ष्मी अर्थात दरिद्रता है जो भूख और प्यास के साथ दुर्गन्धयुक्त है, अर्थात यदि जीवन में धन तो है लेकिन तृष्णाएं यथावत हैं, मानसिक रूप से विकारों में मलिनता है तो वह लक्ष्मी 'श्री' रुपी लक्ष्मी नहीं है और वह लक्ष्मी स्थायी रह भी नहीं सकती है |

जो 'श्री' रुपी लक्ष्मी है, वही जीवन में स्थायी रह सकती है, और इस श्री रुपी लक्ष्मी की नौ कलाओं का जब जीवन में पदार्पण होता है तभी जीवन में पूर्णता आ पाती है |


लक्ष्मी की नौ कलाएं -

जिस व्यक्ति में लक्ष्मी की इन नौ कलाओं का विकास होता है, वहीं लक्ष्मी चिरकाल के लिए विराजमान होती है|

१. विभूति  - सांसारिक कर्तव्य करते हुए दान रुपी कर्तव्य जहां विद्यमान होता है, अर्थात शिक्षा दान, रोगी सेवा, जल दान इत्यादि कर्तव्य हैं, वहां लक्ष्मी की 'विभूति' नामक पीठिका है, यह लक्ष्मी की पहली शक्ति है |

२. नम्रता  - दूसरी शक्ति है नम्रता | व्यक्ति जितना नम्र होता है, लक्ष्मी उसे उतना ही ऊंचा उठाती है |

३. कान्ति - जब विभूति और कान्ति दोनों कलाएं आ जाती हैं, तो वह लक्ष्मी की तीसरी कला 'कान्ति' का पात्र हो जाता है, चेहरे पर एक तेज आता है |

४. तुष्टि  - इन तीनों कलाओं की प्राप्ति होने पर 'तुष्टि' नामक चतुर्थ कला का आगमन होता है, वाणी सिद्धि, व्यवहार, गति, नए-नए कार्य, पुत्र-प्राप्ति, दिव्यता-सभी उसमें एक रास होती हैं|

५. कीर्ति - यह लक्ष्मी की पांचवी कला है, इसकी उपासना करने से साधक अपने जीवन में धन्य हो जाता है, संसार के आधार का अधिकारी हो जाता है |

६. सन्नति - कीर्ति-साधना से लक्ष्मी की छटी कला सन्नति मुग्ध होकर विराजमान होती है|

७. पुष्टि - इस कला द्वारा साधक अपने जीवन में जो सन्तुष्टि अनुभव करता है| उसे अपने जीवन का सार मालूम पड़ता है |

८. उत्कृष्टि - इस कला से जीवन में क्षय-दोष होता है वह समाप्त हो जाता है | केवल वृद्धि ही वृद्धि होती है |

९. ऋद्धि - सबसे महत्वपूर्ण, सर्वोत्तम कला ऋद्धि पीठाधिष्ठात्री है, जो बाकी आठ कलाओं के होने पर स्वतः ही समाविष्ट हो जाती है |

दीपावली रात्रि को विधिवत पूजन से श्री-लक्ष्मी, नौ कलाओं सहित घर में स्थायी निवास करती है |

पूजन सामग्री

कुंकुम,मौली, अगरबत्ती, केशर, कपूर, सिन्दूर, पान, सुपारी, लौंग, इलायची, फल, पुष्प माला, गंगाजल, पंचामृत (दूध, दही, घी, शहद और चीनी), यज्ञोपवीत, वस्त्र, मिठाई एवं पंचपात्र |

पवित्रीकरण 

ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोपि वा | 
यः स्मरेत पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः || 

संकल्प 
दाहिने हाथ में जल लेकर निम्न मन्त्र को पढ़े -

ॐ विर्ष्णु विर्ष्णु विर्ष्णुः श्री मदभगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य अद्य श्री ब्रह्मनोहि द्वितीय परार्द्वे श्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे जम्बु द्वीपे भारतवर्षे अस्मिन पवित्र क्षेत्रे अमुक वासरे (दिन बोले) अमुक गोत्रोत्पन्नहं (अपना गोत्र बोले), अमुक शर्माहं (अपना नाम बोले) यथा मिलितोपचारैः श्री महालक्ष्मी प्रीत्यर्थे तदंगत्वेन यथाशक्ति गणपति पूजनं च एवं मंत्र जाप करिष्ये | 

जल भूमि पर छोड़ दें |

गुरु पूजन 
दोनों हाथ जोड़ कर निम्न मन्त्र का उच्चारण करें -

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वर | 
गुरुः साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः || 
गुरुं आवाहयामि स्थापयामि नमः | 
पाद्यं स्नानं तिलकं पुष्पं धूपं 
दीपं नैवेद्यं च समर्पयामि नमः || 

ऐसा बोलकर पाद्य, जल स्नान, तिलक, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य आदि समर्पित करें, फिर दोनों हाथ जोड़ कर प्रार्थना करें -

अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया | 
चक्षुरन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरुवे नमः || 

गणपति-पूजन 
इसके बाद दोनों हाथ जोड़ कर भगवान् गणपति का ध्यान करें -

गजाननं भूत गणाधिसेवितं,
कपित्थ जम्बूफल चरुभक्षणं| 
उमासुतं शोक विनाश कारकं ;
नमामि विघ्नेश्वर पादपंकजम || 
ॐ गणेशाय नमः ध्यानं समर्पयामि || 

भगवान् गणपति को आसन के लिए पुष्प समर्पित करें |  इसके बाद सामने स्थापित 'महागणपति-महालक्ष्मी' यंत्र अथवा विग्रह को जल से स्नान करावें, फिर पंचामृत स्नान करावें, स्नान के समय निम्न मन्त्र बोलें -

पञ्च नद्यः सरस्वती मपियन्ति सस्त्रोतसः | 
सरस्वती तू पञ्चधा सोदेशेभवत सरित || 

इसके बाद चन्दन, अक्षत, पुष्पमाला, नैवेद्य आदि समर्पित करें तथा धुप-दीप दिखाएं -

चन्दनं अक्षतान पुष्प मालां 
नैवेद्यं च समर्पयामि नमः | 
धूपं दीपं दर्शयामि नमः || 

इसके बाद तीन बार मुख शुद्धि के लिए आचमन करायें, इलायची और लौंग आदि से युक्त पान चढ़ायें|  फिर दोनों हाथ जोड़ कर प्रार्थना करें  -

नमस्ते ब्रह्मरूपाय विष्णुरूपाय ते नमः | 
नमस्ते रुद्ररूपाय करिरूपाय ते नमः || 
विश्वरूपस्वरूपाय नमस्ते ब्रह्मचारिणे | 
भक्तिप्रियाय देवाय नमस्तुभ्यं विनायक || 
ॐ गं गणपतये नमः | 
निर्विघ्नमस्तु|  निर्विघ्नमस्तु | निर्विघ्नमस्तु | 
अनेन कृतेन पूजनेन सिद्धि बुद्धि सहितः || 
श्री भगवान् गणाधिपतिः प्रीयन्ताम || 

इसके बाद दोनों हाथ जोड़ कर भगवती महालक्ष्मी का ध्यान करें -

ॐ अम्बेअम्बिके अम्बालिके न मा नयति कश्चन| 
ससस्त्यश्वकः सुभद्रिकां काम्पीलवासिनीम || 
श्री महालक्ष्म्यै नमः आवाहनं समर्पयामि || 

महालक्ष्मी ध्यान 
दोनों हाथ जोड़कर मन ही मन स्मरण करें कि भगवती महालक्ष्मी आकर विराजमान हो, प्रार्थना करे  -

पदमासना पदमकरां पदममाला विभूषिताम | 
क्षीर सागर संभूतां हेमवर्ण समप्रभाम || 
क्षीर वर्ण समं वस्त्रं दधानं हरिवल्लभाम | 
भावये भक्तियोगेन भार्गवीं कमलां शुभां || 
श्री महालक्ष्म्यै नमः ध्यानं समर्पयामि || 

आसन 
आसन के लिए पुष्प अर्पित करें  -
श्री महालक्ष्म्यै नमः आसनं समर्पयामि नमः || 

पाद्य 
पाद्य के लिए दो आचमनी जल चढ़ायें  -
श्री महालक्ष्म्यै नमः पाद्यं समर्पयामि | 
अर्घ्यं आचमनीयं स्नानं च समर्पयामि || 

पंचामृत स्नान 
पंचामृत से भगवती महालक्ष्मी को स्नान कराये -
मध्वाज्यशर्करायुक्तं दधिक्षीरसमन्वितम | 
पंचामृतं गृहाणेदं पंचास्यप्राणवल्लभे |
श्री महालक्ष्म्यै नमः पंचामृत स्नानं समर्पयामि || 

शुद्धोदक स्नान 
इसके बाद उन्हें शुद्ध जल से स्नान करायें -

परमानन्द बोधाब्धि निमग्न निजमूर्तये | 
शुद्धोदकैस्तु स्नानं कल्पयाम्यम्ब शंकरि || 
श्री महालक्ष्म्यै नमः  शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि || 

वस्त्र 
वस्त्र समर्पित करे  -
श्री महालक्ष्म्यै नमः वस्त्रं समर्पयामि || 

आभूषण 
श्री महालक्ष्म्यै नमः आभूषणं समर्पयामि || 

गन्ध 
इत्र चढ़ावें
श्री महालक्ष्म्यै नमः गन्धं समर्पयामि || 

अक्षत 
श्री महालक्ष्म्यै नमः अक्षतान समर्पयामि || 

पुष्प 
श्री महालक्ष्म्यै नमः पुष्पाणि समर्पयामि || 

इसके बाद कुंकुम, चावल तथा पुष्प मिला कर निम्न मन्त्रों का उच्चारण करते हुए विग्रह/यंत्र पर चढ़ायें -

ॐ चपलायै नमः पादौ पूजयामि || 
ॐ चञ्चलायै नमः कटिं पूजयामि || 
ॐ कमलायै नमः कटिं पूजयामि || 
ॐ कात्यायन्यै नमः नाभिं पूजयामि || 
ॐ जगन्मात्रे नमः जठरं पूजयामि || 
ॐ विश्ववल्लभायै नमः वक्षःस्थलं पूजयामि || 
ॐ कमलवासिन्यै नमः हस्तौ पूजयामि || 
ॐ पाद्याननायै नमः मुखं पूजयामि || 
ॐ कमलपत्राख्यै नमः नेत्रत्रयं पूजयामि || 
ॐ श्रियै नमः शिरः पूजयामि || 
ॐ महालक्ष्म्यै नमः सर्वाङ्गं पूजयामि || 


धूप 
श्री महालक्ष्म्यै नमः धूपं आघ्रापयामि ।।

दीप 
श्री महालक्ष्म्यै नमः दीपं दर्शचयामि ||


नैवेद्य 
नाना विधानी  भक्ष्याणी
व्यञ्जनानी       हरिप्रिये |
यथेष्टं   भूङक्ष्व    नैवेद्यं |
षडरसं   च    चतुर्विधम || 
श्री महालक्ष्म्यै नमः नैवेद्यं निवेदयामि || 

नैवेद्य समर्पित कर तीन बार जल का आचमन कराएं |


ताम्बूल 
लौंग इलायची युक्त पान समर्पित करें -
श्री महालक्ष्म्यै नमः ताम्बूलं समर्पयामि || 

दक्षिणा 
दक्षिणा द्रव्य समर्पित करें  -
श्री महालक्ष्म्यै नमः दक्षिणां समर्पयामि ||


इसके बाद 'कमलगट्टे की माला' से निम्न मन्त्र का १ माला मन्त्र जप करें -

|| ॐ श्रीं श्रीं महालक्ष्मी आगच्छ आगच्छ धनं देहि देहि ॐ || 


 इसके बाद घी की पांच बत्ती की आरती बना कर आरती करें ।

जल आरती 
तीन बार आचमनी से जल लेकर दीपक के चरों ओर घुमायें तथा निम्न मन्त्र का उच्चारण करें -

ॐ द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष (गूं ) शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्ति 
रोषधयः शान्तिः |  वनस्पतयः शान्ति र्विश्वे देवाः शान्तिः ब्रह्म 
शान्तिः सर्व (गूं ) शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि || 


 पुष्पाञ्जलि 
दोनों हाथों में पुष्प लेकर निम्न मन्त्र का उच्चारण करें तथा यंत्र अथवा विग्रह पर चढ़ा दे -

नाना सुगंध पुष्पाणि यथा कालोदभवानि च |
पुष्पाञ्जलिर्मया दत्ता गृहाण जगदम्बिके || 
श्री महालक्ष्म्यै नमः पुष्पांजलि समर्पयामि ||


समर्पण 
इसके बाद निम्न समर्पण मन्त्र का उच्चारण करते हुए पूजन व् जप भगवती लक्ष्मी को समर्पित करें, जिससे कि इसका फल आपको प्राप्त हो सके -

ॐ     तत्सत         ब्रह्मार्पणमस्तु,
अनेन कृतेन पूजाराधन कर्मणा | 
श्री  महालक्ष्मी  देवता  परासंवित 
स्वरूपिणी                प्रियनताम || 

एक आचमनी जल लेकर, पूजन की पूर्णता हेतु भूमि पर छोड़ दें | इसके बाद वहा उपस्थित परिवार के सभी सदस्यों एवं स्वजनों को प्रसाद वितरित करें|

इस प्रकार यह सम्पूर्ण पूजन व् साधना संपन्न होती है| साधना समाप्ति के पश्चात सवा माह तक नित्य कमलगट्टे की माला से - 
|| ॐ श्रीं श्रीं महालक्ष्मी आगच्छ आगच्छ धनं देहि देहि ॐ ||
मंत्र का १ माला जप करें | सवा माह पश्चात माला तथा यंत्र को जल में विसर्जित कर दें |


आदेश.....

16 Oct 2021

पापांकुशा साधना.


यावत् जीवेत सुखं जीवेत ।
सर्वं पापं विनश्यति ।।

प्रत्येक जीव विभिन्न योनियों से होता हुआ निरन्तर गतिशील रहता है| हलाकि उसका बाहरी चोला बार-बार बदलता रहता है, परन्तु उसके अन्दर निवास करने वाली आत्मा शाश्वत है, वह मारती नहीं हैं, अपितु भिन्न-भिन्न शरीरों को धारण कर आगे के जीवन क्रम की ओर गतिशील रहती है ।

जो कार्य जीव द्वारा अपनी देह में होता है, उसे कर्म कहते हैं और उसके सामान्यतः दो भेद हैं - शुभ कर्म यानी कि पुण्य तथा अशुभ कर्म अर्थात पाप| शुभ कर्म या पुण्य वह होता है, जिसमे हम किसी को सुख देते हैं, किसी की भलाई करते हैं और अशुभ कर्म वह होता है, जिसमें हमारे द्वारा किसी को दुःख प्राप्त होता है, जिसमें हमारे द्वारा किसी को संताप पहुंचता हैं ।

मानव योनी ही एक ऐसे योनि है, जिसमें वह अन्य कर्मों को संचित करता रहता है| पशु आदि तो बस पूर्व कर्मों के अनुसार जन्म ले कर ही चलते रहते हैं, वे यह नहीं सोचते, कि यह कार्य में कर रहा हूं या मैं इसको मार रहा हूं । अतः उनके पूर्व कर्म तो क्षय होते रहते हैं, परन्तु नवीन कर्मों का निर्माण नहीं होता; जबकि मनुष्य हर बात में 'मैं' को ही सर्वोच्चता प्रदान करता हैं... और चूंकि वह प्रत्येक कार्य का श्रेय खुद लेना चाहता है, अतः उसका परिणाम भी उसे ही भुगतना पड़ता है। 

मनुष्य जीवन और कर्म-
मनुष्य जीवन में कर्म को शास्त्रीय पद्धति में तीन भागों में बांटा गया है -
१. संचित
२. प्रारब्ध
३. आगामी (क्रियमाण)

'संचित कर्म' वे होते हैं, जो जीव ने अपने समस्त दैहिक आयु के द्वारा अर्जित किये हैं और जो वह अभी भी करता जा रहा है। 
'प्रारब्ध' का अर्थ है, जिन कर्मों का फल अभी गतिशील हैं, उसे वर्त्तमान में भोगा जा रहा हैं ।
'आगामी' का अर्थ है, वे कर्म, जिनका फल अभी आना शेष है ।

इन तीनो कर्मों के अधीन मनुष्य अपना जीवन जीता रहता है| प्रकृति के द्वारा ऐसी व्यवस्था तो रहती है, कि उसके पूर्व कर्म संचित रहें, परन्तु दुर्भाग्य यह है, कि मनुष्य को उसके नवीन कर्म भी भोगने पड़ते हैं, फलस्वरूप उसे अनंत जन्म लेने पड़ते हैं| परन्तु यह तो एक बहुत ही लम्बी प्रक्रिया है, और इसमें तो अनेक जन्मों तक भटकते रहना पड़ता है ।

परन्तु एक तरीका है जिससे व्यक्ति अपने छल, दोष, पाप को समूल नष्ट कर सकता है, नष्ट ही नहीं कर सकता अपितु भविष्य के लिए अपने अन्दर अंकुश भी लगा सकता है, जिससे वह आगे के जीवन को पूर्ण पवित्रता युक्त जी सके, पूर्ण दिव्यता युक्त जी सके और जिससे उसे फिर से कर्मों के पाश में बंधने की आवश्यकता नहीं पड़े ।

साधना : एकमात्र मार्ग 
...और यह तरीका, यह मार्ग है साधना का, क्योंकि साधना का अर्थ ही है, कि अनिच्छित स्थितियों पर पूर्णतः विजय प्राप्त कर अपने जीवन को पूरी तरह साध लेना, इस पर पूरी तरह से अपना नियंत्रण कायम कर लेना ।

यदि यह साधना तंत्र मार्ग के अनुसार हो, तो इससे श्रेष्ठ कुछ हो ही नहीं सकता, इससे उपयुक्त स्थिति तो और कोई हो ही नहीं सकती, क्योंकि स्वयं शिव ने 'महानिर्वाण तंत्र' में पार्वती को तंत्र की विशेषता के बारे में समझाते हुए बताया है -

श्लोक:-

कल्किल्मष दीनानां द्विजातीनां सुरेश्वरी |
मध्या मध्य विचाराणां न शुद्धिः श्रौत्कर्मणा ||
न संहिताध्यैः स्र्मुतीभिरष्टसिद्धिर्नुणां भवेत् |
सत्यं सत्यं पुनः सत्यं सत्य सत्यं मयोच्यते ||
विनाह्यागम मार्गेण कलौ नास्ति गतिः प्रिये |
श्रुतिस्मृतिपुराणादी मयैवोक्तं  पूरा  शिवे ||
आगमोक्त विधानेन कलौ देवान्यजेत्सुधिः ||   


अर्थ:-

- ही देवी! कलि दोष के कारण ब्राह्मण या दुसरे लोग, जो पाप-पुण्य का विचार करते हैं, वे वैदिक पूजन की विधियों से पापहीन नहीं हो सकते । मैं बार बार सत्य कहता हूं, कि संहिता और स्मृतियों से उनकी आकांक्षा पूर्ण नहीं हो सकती। कलियुग में तंत्र मार्ग ही एकमात्र विकल्प है । यह सही है, कि वेद, पुराण, स्मृति आदि भी विश्व को किसी समय मैंने ही प्रदान किया था, परन्तु कलियुग में बुद्धिमान व्यक्ति तंत्र द्वारा ही साधना कर इच्छित लाभ पाएगा। 



इससे स्पष्ट होता है, कि तंत्र साधना द्वारा व्यक्ति अपने पाप पूर्ण कर्मों को नष्ट कर, भविष्य के लिए उनसे बन्धन रहित हो सकते हैं । वैसे भी व्यक्ति यदि जीवन में पूर्ण दरिद्रता युक्त जीवन जी रहा है या यदि वह किसी घातक बीमारी के चपेट में है, जो कि समाप्त होने का नाम ही नहीं ले रही हो, तो यह समझ लेना चाहिए, कि उसके पाप आगे आ रहे है ...

नीचे कुछ स्थितियां स्पष्ट कर रहा हूं, जो कि व्यक्ति के पूर्व पापों के कारण जीवन में प्रवेश करती हैं -

१. घर में बार-बार कोई दुर्घटना होना, आग लगना, चोरी होना आदि ।
२. पुत्र या संतान का न होना, या होने पर तुरंत मर जाना ।
३. घर के सदस्यों की अकाल मृत्यु होना ।
४. जो भी योजना बनायें, उसमें हमेशा नुकसान होना ।
५. हमेशा शत्रुओं का भय होना ।
६. विवाह में अत्यंत विलम्ब होना या घर में कलह पूर्ण वातावरण, तनाव आदि ।
७. हमेशा पैसे की तंगी होना, दरिद्रतापूर्ण जीवन, बीमारी और अदालती मुकदमों में पैसा पानी की तरह बहना ।

ये कुछ स्थितियां हैं, जिनमें व्यक्ति जी-जान से कोशिश करने के उपरांत भी यदि उन पर नियंत्रण नहीं प्राप्त कर पाता, तो समझ लेना चाहिए, कि यह पूर्व जन्म कर्मों के दोष के कारण ही घटित हो रहा है । इसके लिये फिर उन्हें साधना का मार्ग अपनाना चाहिए, जिसके द्वारा उसके समस्त दोष नष्ट हो सकें और वह जीवन में सभी प्रकार से वैभव, शान्ति और श्रेष्ठता प्राप्त कर सके ।

ऐसी ही एक साधना है पापांकुशा साधना, जिसके द्वारा व्यक्ति अपने जीवन में व्याप्त सभी प्रकार के दोषों को - चाहे वह दरिद्रता हो, अकाल मृत्यु हो, बीमारी हो या चाहे और कुछ हो, उसे पूर्णतः समाप्त कर सकता है और अब तक के संचित पाप कर्मों को पूर्णतः नष्ट करता हुआ भविष्य के लिए भी उनके पाश से मुक्त हो जाता है, उन पर अंकुश लगा पाता है ।

इस साधना को संपन्न करने से व्यक्ति के जीवन में यदि ऊपर बताई गई स्थितियां होती है, तो वे स्वतः ही समाप्त हो जाती हैं । वह फिर दिनों-दिन उन्नति की ओर अग्रसर होने लग जाता है, इच्छित क्षेत्र में सफलता प्राप्त करता है और फिर कभी भी, किसी  भी प्रकार की बाधा का सामना उसे अपने जीवन में नहीं करना पड़ता। 

यह साधना अत्याधिक उच्चकोटि की है और बहुत ही तीक्ष्ण है । चूंकि यह तंत्र साधना है, अतः इसका प्रभाव शीघ्र देखने को मिलता है| यह साधना स्वयं ब्रह्म ह्त्या के दोष से मुक्त होने के लिए एवं जनमानस में आदर्श स्थापित करने के लिए कालभैरव  ने भी संपन्न की थी ... इसी से साधना की दिव्यता और तेजस्विता का अनुमान हो जाता है ....

यह साधना तीन दिवसीय है, इसे पापांकुशा एकादशी से या किसी भी एकादशी से प्रारम्भ करना चाहिए । इसके लिए 'समस्त पाप-दोष निवारण यंत्र' तथा 'हकीक माला' की आवश्यकता होती है ।

सर्वप्रथ साधक को ब्रह्म मुहूर्त में उठ कर स्नान आदि से निवृत्त हो कर, सफेद धोती धारण कर, पूर्व दिशा की ओर मूंह कर बैठना चाहिए और अपने सामने नए श्वेत वस्त्र से ढके बाजोट पर 'समस्त पाप-दोष निवारण यंत्र' स्थापित कर उसका पंचोपचार पूजन संपन्न करना चाहिए। 'मैं अपने सभी पाप-दोष समर्पित करता हूं, कृपया मुझे मुक्ति दें और जीवन में सुख, लाभ, संतुष्टि प्रसन्नता आदि प्रदान करें' - ऐसा कहने के साथ यदि अन्य कोई इच्छा विशेष हो, तो उसका भी उच्चारण कर देना चाहिए । फिर 'हकीक' से निम्न मंत्र का २१ माला मंत्र जप करना चाहिए -

मंत्र:-

|| ॐ क्लीं ऐं पापानि शमय नाशय ॐ फट ||

यह मंत्र अत्याधिक चैत्यन्य है और साधना काल में ही साधक को अपने शरीर का ताप बदला मालूम होगा । परन्तु भयभीत न हों, क्योंकि यह तो शरीर में उत्पन्न दिव्याग्नी है, जिसके द्वारा पाप राशि भस्मीभूत हो रही है| साधना समाप्ति के पश्चात साधक को ऐसा प्रतीत होगा, कि उसका सारा शरीर किसी बहुत बोझ से मुक्त हो गया है, स्वयं को वह पूर्ण प्रसन्न एवं आनन्दित महसूस करेगा और उसका शरीर फूल की भांति हल्का महसूस होगा ।

जो साधक अध्यात्म के पथ पर आगे बढ़ना चाहते हैं, उन्हें तो यह साधना अवश्य ही संपन्न करने चाहिए, क्योंकि जब तक पाप कर्मों का क्षय नहीं हो जाता, व्यक्ति की कुण्डलिनी शक्ति जागृत हो ही नहीं सकती और न ही वह समाधि अवस्था को प्राप्त कर सकता है ।

साधना के उपरांत यंत्र तथा माला को किसी जलाशय में अर्पित कर देना चाहिए। ऐसा करने से साधना फलीभूत होती है और व्यक्ति समस्त दोषों से मुक्त होता हुआ पूर्ण सफलता अर्जित कर, भौतिक एवं अध्यात्मिक, दोनों मार्गों में श्रेष्टता प्राप्त करता है ।



आदेश.....