वैशाख शुक्ल पक्ष की तृतीया को अक्षय तृतीया के रूप में मनाया जाता है। भारतीय ॠषियों ने साढ़े दिनों के मुहूर्तों को सिद्ध मुहूर्त बताया है, इन मुहूर्तों में कोई भी शुभ कार्य प्रारम्भ किया जा सकता है। इन साढ़े तीन मुहूर्तों में नवीन वस्त्र, धन-धान्य, गृह प्रवेश, गृह निर्माण, स्थाई वस्तु का क्रय शुभ माना गया है।
ये पर्व है –
1. चैत्र नवरात्रि का प्रथम दिवस –चैत्र शुक्ल प्रतिपदा।
2. आश्विन नवरात्रि शुक्ल पक्ष दशमीं –विजयादशमी।
3. कार्तिक अमावस्या –दीपावली का प्रथम काल (आधा दिन)
4. वैशाख शुक्ल पक्ष तृतीया – अक्षय तृतीया।
इन चार पर्वों में भी अक्षय तृतीया शुभ कार्य अर्थात् विवाह, अस्त्र-शस्त्र, वाहन, धन, भवन-भूमि, स्वर्ण-आभूषण, युद्ध क्रिया, तीर्थ यात्रा, दान-धर्म-पुण्य, पितरेश्वर तर्पण सभी दृष्टियों से सर्वोत्तम है।
अक्षय तृतीया के दिन किये जाने वाले शुभ कार्य का फल अक्षय होता है। इस दिन दिया जाने वाला दान अक्षुण्ण रहता है। ज्योतिष की दृष्टि से भी अक्षय तृतीया का विशेष महत्व है। अक्षय तृतीया के दिन सूर्य और चन्द्रमा अपने परमोच्च अंश पर रहते हैं।
सूर्य दस अंश पर उच्च का होता है और चन्द्रमा 33 अंश पर परमोच्च होता है। इस दिन ग्रह-नक्षत्र, मण्डल में यह स्थिति बनती है। इस कारण इस दिन किये गये मंत्र जप, साधना, दान से सूर्य और चन्द्रमा दोनों जातक के लिये बलवान होते हैं और सूर्य चन्द्रमा का आशीर्वाद मनुष्य को प्राप्त होता है। वेदों के अनुसार सूर्य को इस सकल ब्रह्माण्ड की आत्मा माना गया है और चन्द्रमा मानव मन को सर्वाधिक प्रभावित करता है। अतः इस दिन मन और आत्मा के कारक सूर्य और चन्द्रमा दोनों पूर्ण बली होते हैं। दोनों उच्च के होते हैं, इस कारण अक्षय तृतीया का दिन पूर्ण सफलता, समृद्धि एवं आंतरिक सुख अनुभूति का वाहक बन जाता है।
अक्षय तृतीया के दिन भगवान कृष्ण और सुदामा का पुनः मिलाप हुआ था। भगवान कृष्ण चन्द्र वंशीय है और इस दिन चन्द्रमा उच्च का होता है। चन्द्रमा मन का कारक है और सुदामा साक्षात् निस्वार्थ भक्ति के प्रतीक हैं। इस अर्थ में निस्वार्थ भक्ति और मन के प्रभु मिलन का यह पर्व है। भक्ति और साधना से ही ईश्वर का आशीर्वाद प्राप्त होता है।
अक्षय तृतीया को युगादि तिथि कहा जाता है। युगादि का तात्पर्य है एक युग का प्रारम्भ और अक्षय तृतीया से त्रेता युग प्रारम्भ हुआ था। त्रेता युग में ही भगवान राम का जन्म हुआ था जो सूर्यवंशी थे। सूर्य उच्च का और परम तेजस्वी होने पर इस योग से सूर्य वंश में तेजस्वी भगवान राम का जन्म हुआ।
अक्षय तृतीया के दिन ही भगवान परशुराम का जन्म हुआ था, भगवान परशुराम के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने पृथ्वी को 21 बार क्षत्रिय रहित किया था। शास्त्रों में सही वर्णन है, क्षत्रिय से तात्पर्य किसी जाति से नहीं है। प्रत्येक मनुष्य में तीन गुण सत्व, रजस और तमस प्रधान होते है। भगवान परशुराम ने सत्व गुण अर्थात् ॠषि, वेद, साधना, तपस्या, यज्ञ, ज्ञान के पुनर्स्थापन के लिये रजस और तमस तत्वों का अंत किया था।
अक्षय तृतीया के दिन ही भारतवर्ष में गंगा नदी का अवतरण ब्रह्माण्ड से हुआ था। गंगा नदी को पवित्रतम् माना जाता है और भारत की प्राण धारा कहा जाता है। गंगा की सहायक नदियां यमुना, सरस्वती, कावेरी, कृष्णा, गोदावरी, ब्रह्मपुत्र हैं। अतः पतितपावनी गंगा के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के लिये अक्षय तृतीया को नदी, तीर्थ आदि पर स्नान सम्पन्न किया जाता है।
अक्षय तृतीया के दिन ही भारतवर्ष में गंगा नदी का अवतरण ब्रह्माण्ड से हुआ था। गंगा नदी को पवित्रतम् माना जाता है और भारत की प्राण धारा कहा जाता है। गंगा की सहायक नदियां यमुना, सरस्वती, कावेरी, कृष्णा, गोदावरी, ब्रह्मपुत्र हैं। अतः पतितपावनी गंगा के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के लिये अक्षय तृतीया को नदी, तीर्थ आदि पर स्नान सम्पन्न किया जाता है।
पाण्डवों के वनवास के दौरान पांचों पाण्डव वन-वन भटक रहे थे और उनके पास अन्न, धन-धान्य समाप्त हो गया। इस पर युधिष्ठर ने भगवान कृष्ण से इसका उपाय पूछा, भगवान कृष्ण ने कहा कि तुम सब पाण्डव धौम्य ॠषि के निर्देश में सूर्य साधना सम्पन्न करो। धौम्य ॠषि के निर्देशोनुसार पाण्डवों ने सूर्य साधना सम्पन्न की और सूर्य देव के द्वारा उन्हें अक्षय तृतीया के दिन अक्षय पात्र प्रदान किया गया । कहा जाता है कि उस अक्षय पात्र का भण्डार कभी खाली नहीं होता था और उस अक्षय पात्र के माध्यम से पाण्डवों को धन-धान्य की प्राप्ति हुई। उस धन-धान्य से वे पुनः अस्त्र-शस्त्र क्रय करने में समर्थ हो गये। इसी कारण अक्षय तृतीया के दिन अस्त्र-शस्त्र, वाहन क्रय किया जाता है। द्रौपदी के चीर हरण की घटना अक्षय तृतीया के दिन ही घटित हुई थी, इस दिन भगवान कृष्ण ने द्रौपदी के चीर को अक्षय बना दिया था।
भगवान वेद व्यास ने जब महाभारत कथा लिखने का विचार किया तो सारी कथा का विचार कर उनका धैर्य कम हो गया तब भगवान का आदेश आया कि तुम बोलते रहो और गणेश लिखते रहेंगे जिससे पूरी रचना में व्यवधान नहीं होगा। यह शुभ कार्य वेद-व्यास जी ने इसी दिन प्रारम्भ किया था और महाभारत द्वापर युग का ऐसा विवेचनात्मक ग्रंथ है, जिसमें उस काल की प्रत्येक घटना स्पष्ट है। जिससे कलियुग में मनुष्य यह जान सकें कि जीवन में उतार-चढ़ाव, लाभ-हानि, मित्रता-द्वेष, यश-अपयश क्या होता है? तथा जो व्यक्ति श्रीकृष्ण अर्थात् भगवान का ध्यान कर उनके सम्मुख नम्र रहता है, वही इस संसार चक्र में विजयी होता है।
अक्षय तृतीया के दिन ही श्रीबलराम का जन्म हुआ था जो कि भगवान श्रीकृष्ण के बड़े भाई थे और उनका शस्त्र ‘हल’ था। ॠषि गर्ग उनका नाम ‘राम’ रखना चाहते थे लोगों ने कहा कि भगवान राम तो त्रेता युग में हुए हैं तब ॠषि ने कहा कि इस बालक में अतुलित बल होगा इस कारण संसार में यह बलराम के नाम से जाना जायेगा। बलराम का दूसरा नाम हलअस्त्र होने के कारण ‘हलायुध’ तथा अद्भुत संगठन शक्ति के कारण ‘संकर्षण’ होगा।
बलराम को शेषनाग का अवतार भी माना गया है। इसके पीछे कथा यह है कि लक्ष्मण ने त्रेता युग में भगवान राम की बहुत सेवा की और भगवान राम ने यह वरदान दिया कि इस जन्म में तुमने मेरी बहुत सेवा की है, अगले जन्म में तुम मेरे बड़े भाई होओगे और मैं तुम्हारा छोटा भाई बनकर तुम्हारी सेवा करूंगा।
अक्षय तृतीया के दिन ही भगवान शिव ने देवी लक्ष्मी को जगत् की सम्पत्ति का संरक्षक नियुक्त किया था इसीलिये भगवती लक्ष्मी के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने के लिये इस दिन स्वर्ण आभूषण, भूमि, भवन इत्यादि क्रय करने का विशेष महत्व है।
अन्नपूर्णा अन्न की देवी है और यह देवी पार्वती का अवतार हैं। इनका निवास प्रत्येक मनुष्य और देवताओं के घर में है। एक पौराणिक प्रसंग में एक भिक्षुक के वेश में भगवान शिव ने देवताओं से प्रश्न किया कि इस जगत में भिक्षुकों का पेट कौन भरेगा? तो देवताओं ने कहा – ‘भगवती पार्वती का स्वरूप अन्नपूर्णा’ जिसके घर में स्थापित रहेगी वहां किसी भी प्रकार की क्षुधा (भूख) नहीं रहेगी और खान-पान का भण्डार सदैव भरा रहेगा। उसके घर से कोई खाली पेट नहीं लौटेगा।
इस दिन भगवान शिव ने देवी लक्ष्मी को धन के रूप में स्थापित किया। अन्न और धन दोनों लक्ष्मी का स्वरूप हैं जिस घर में अन्न की पूजा अर्थात् देवी पार्वती के स्वरूप अन्नपूर्णा की पूजा और देवी लक्ष्मी के स्वरूप धन लक्ष्मी का स्थापन होता है वह गृहस्थ सद्गृहस्थ कहा जाता है और उसके निवास में सब ओर से परिपूर्णता रहती है। इसीलिये अक्षय तृतीया के दिन अन्नपूर्णा लक्ष्मी का स्थापन विशेष रूप से किया जाता है।
इस जगत में 12 प्रकार के दान श्रेष्ठतम् माने गये हैं,
ये हैं – गौ, भूमि, तिल, स्वर्ण, घी, वस्त्र, धान्य, गुड़, चांदी, नमक, शहद और कन्या है।
ये हैं – गौ, भूमि, तिल, स्वर्ण, घी, वस्त्र, धान्य, गुड़, चांदी, नमक, शहद और कन्या है।
अक्षय तृतीया इन सारी वस्तुओं को दान करने का श्रेष्ठतम पर्व है। इन वस्तुओं का दान करने से मनुष्य को विशेष फल प्राप्त होता है। इस संसार में परिपूर्णता और शांति सौभाग्य का सद्व्यवहार दान से ही प्राप्त होता है। दान से समभाव की उत्पत्ति होती है।विवाह संस्कार में कन्या दान किया जाता है। पिता अपनी पुत्री का कन्या दान संस्कार कर दूसरे घर में लक्ष्मी के रूप में भेजता है। इस कारण अक्षय तृतीया कन्या दान अर्थात् विवाह का सर्वश्रेष्ठ मुहूर्त है।
सार रूप में अक्षय तृतीया श्रेष्ठतम् पर्व है इस दिन साधक को शिव साधना, गुरु साधना, कुबेर साधना, अन्नपूर्णा लक्ष्मी साधना के साथ-साथ, दान-यज्ञ अवश्य ही सम्पन्न करना चाहिये। जो साधक अक्षय तृतीया के दिन भी साधना नहीं करता है। उसे दुर्भाग्यशाली ही कहा जा सकता है। उसके भाग्य को तो शिव भी ठीक नहीं कर सकते हैं। येसे महान पर्व पर 'लक्ष्मी साधना' करना ही जीवन मे योग्य है क्योंके आज के युग मे धन से संबंधित बाधाएं बहोत सारी है और धन-धान्य-ऐश्वर्य प्राप्त करता आवश्यक है ।
आज सभी के लिए एक उत्तम लक्ष्मी साधना दे रहा हू,जिसका प्रभाव जीवन मे देखने मिलता है और साधक के जीवन मे माँ लक्ष्मी जी के कृपा से धन-धान्य-ऐश्वर्य की प्राप्ती संभव है ।
साधना विधान:-
सर्वप्रथम किसी लकड़ी के बाजोट पर पीले/स्वर्णीय रंग का वस्त्र बिछाये, यहां पीले/स्वर्णीय वस्त्र का महत्व है क्योंके हमारा जीवन स्वर्ण की तरह उज्वल हो और जीवन मे धनप्राप्ती में रुकावट ना आये । बाजोट पर माँ का भव्य चित्र स्थापित करे, एक ऐसा चित्र जिसमे दो हाथी माँ पर जल वर्षाव कर रहे हो और माँ कमल पर विराजमान हो । सामने घी का दीपक लगाये और गुलाब के धूपबत्ती से वातावरण को गुलाब के सुगंध से आनंदित करे । माँ को घर पर बने हुये मीठे पदार्थ का भोग लगाएं,उनके श्री चरणों में गुलाब या कमल का पुष्प चढ़ाए । कुछ फल भी रखे जो भी मार्केट में ताजा मिल रहे हो,यह साधना कुछ कारणों वश अक्षय तृतीया के अवसर पर नही कर सके तो किसी भी शुक्ल पक्ष के शुक्रवार को कर सकते है । साधना में मंत्र जाप हेतु कमलगट्टे की माला या स्फटिक माला का ही प्रयोग करे, घर मे श्रीयंत्र हो तो उसका भी पूजन करे । आपके पास माला होना जरूरी है,अगर माला ना हो तो अपने शहर के किसी भी मार्केट से माला स्वयं खरीदे और अगर वहा किसी भी प्रकार का श्रीयंत्र मिलता हो तो वह भी खरीद लेना उत्तम कार्य है । इस ब्लॉग पर माला और यंत्र प्राण-प्रतिष्ठा विधान दिया हुआ है,उसीके माध्यम से माला और श्रीयंत्र को प्राण-प्रतिष्ठित अवश्य करे ताकि साधना में पूर्ण सफलता प्राप्त हो ।
सर्वप्रथम हाथ जोडकर माँ का ध्यान करे-
ध्यानः-
ॐ अरुण-कमल-संस्था, तद्रजः पुञ्ज-वर्णा,
कर-कमल-धृतेष्टा, भीति-युग्माम्बुजा च।
कर-कमल-धृतेष्टा, भीति-युग्माम्बुजा च।
मणि-मुकुट-विचित्रालंकृता कल्प-जालैर्भवतु-भुवन-माता सततं श्रीः श्रियै नः ।।
अब मन मे मंत्रो का उच्चारण करते हुए माँ का मानसिक पूजन करे और साथ मे मन मे यह भावना भी रखे के "मंत्रो में दिए हुए सबंधित वस्तुओं को माँ के समक्ष मानसिक रूप से चढ़ा रहे है"-
मानसिक-पूजनः-
ॐ लं पृथ्वी तत्त्वात्वकं गन्धं श्रीमहालक्ष्मी-प्रीतये समर्पयामि नमः।
ॐ हं आकाश तत्त्वात्वकं पुष्पं श्रीमहालक्ष्मी-प्रीतये समर्पयामि नमः।
ॐ यं वायु तत्त्वात्वकं धूपं श्रीमहालक्ष्मी-प्रीतये घ्रापयामि नमः।
ॐ रं अग्नि तत्त्वात्वकं दीपं श्रीमहालक्ष्मी-प्रीतये दर्शयामि नमः।
ॐ वं जल तत्त्वात्वकं नैवेद्यं श्रीमहालक्ष्मी-प्रीतये निवेदयामि नमः।
ॐ सं सर्व-तत्त्वात्वकं ताम्बूलं श्रीमहालक्ष्मी-प्रीतये समर्पयामि नमः।
महालक्ष्मी मन्त्र:-
।। ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं महालक्ष्म्यै नमः ।।
Om shreem hreem shreem mahaalakshmyai namah
मंत्र दिखने में छोटा है परंतु यह एक उत्तम प्रभावशाली मंत्र है । इस मंत्र का कम से कम 21 माला जाप 11 दिनों तक करना एक श्रेष्ठ क्रिया है । हो सके तो 12 वे दिन "ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं महालक्ष्म्यै नमः स्वाहा" मंत्र बोलते हुए अग्नी में घी की आहुतिया दे,आहूति हेतु मंत्र संख्या निच्छित होती है परंतु आप चाहे तो 108 बार मंत्र बोलकर भी आहुति दे सकते है परंतु संभव हो तो 21 माला मंत्र जाप करते हुए अवश्य ही आहुतिया दे सकते है ।
नित्य जाप समाप्ति के बाद साधक निम्न मंत्रों के साथ हाथ जोड़कर क्षमा याचना करे-
॥ क्षमा प्रार्थना॥
अपराधसहस्राणि, क्रियन्तेऽहॢनशं मया।
दासोऽयमिति मां मत्वा, क्षमस्व परमेश्वर॥ १॥
दासोऽयमिति मां मत्वा, क्षमस्व परमेश्वर॥ १॥
आवाहनं न जानामि, न जानामि विसर्जनम्।
पूजां चैव न जानामि, क्षम्यतां परमेश्वर॥ २॥
पूजां चैव न जानामि, क्षम्यतां परमेश्वर॥ २॥
मंत्रहीनं क्रियाहीनं, भक्तिहीनं सुरेश्वर।
यत्पूजितं मया देव, परिपूर्णं तदस्तु मे॥ ३॥
यत्पूजितं मया देव, परिपूर्णं तदस्तु मे॥ ३॥
अपराधशतं कृत्वा, श्रीसद्गुरुञ्च यः स्मरेत्।
यां गतिं समवाप्नोति, न तां ब्रह्मादयः सुराः॥ ४॥
यां गतिं समवाप्नोति, न तां ब्रह्मादयः सुराः॥ ४॥
सापराधोऽस्मि शरणं, प्राप्तस्त्वां जगदीश्वर।
इदानीमनुकम्प्योऽहं, यथेच्छसि तथा कुरु॥ ५॥
इदानीमनुकम्प्योऽहं, यथेच्छसि तथा कुरु॥ ५॥
अज्ञानाद्विस्मृतेर्भ्रान्त्या, यन्न्यूनमधिकं कृतम्।
तत्सर्वं क्षम्यतां देव, प्रसीद परमेश्वर॥ ६ ।।
तत्सर्वं क्षम्यतां देव, प्रसीद परमेश्वर॥ ६ ।।
ब्रह्मविद्याप्रदातर्वै, सच्चिदानन्दविग्रह!।
गृहाणार्चामिमां प्रीत्या, प्रसीद परमेश्वर॥ ७॥
गृहाणार्चामिमां प्रीत्या, प्रसीद परमेश्वर॥ ७॥
गुह्यातिगुह्यगोप्ता त्वं, गृहाणास्मत्कृतं जपम्।
सिद्धिर्भवतु मे देव, त्वत्प्रसादात्सुरेश्वर॥ ८॥
सिद्धिर्भवतु मे देव, त्वत्प्रसादात्सुरेश्वर॥ ८॥
आदेश...........