धूम्रा मतिव सतिव पूर्णात सा सायुग्मे |
सौभाग्यदात्री सदैव करुणामयि: ||
“हे आदि शक्ति धूम्र रूपा माँ धूमावती आप पूर्णता के साथ सुमेधा और सत्य के युग्म मार्ग द्वारा साधक को सौभाग्य का दान करके सर्वदा अपनी असीम करुणा और ममता का परिचय देती हो....
आपके श्री चरणों में मेरा नमस्कार है |”
“धूम्रासपर्या कल्प पद्धति” से उद्धृत इस श्लोक से ही माँ धूमावती की असीमता और विराटता को हम सहज ही समझ
सकते हैं | बहुधा साधक जब जिज्ञासु की अवस्था में होता है तब वो भ्रांतियों का शिकार होता है,अब ऐसे में या तो वो मार्ग से भटककर पतित हो जाता है,या फिर सद्गुरु के श्री चरण कमलों का आश्रय लेकर सत्य से ना सिर्फ परिचित हो जाता है अपितु उस पर निर्बाध गति करते हुए अपने अभीष्ट लक्ष्य को भी प्राप्त कर लेता है | माँ धूमावती की साधना को जटिल और अहितकर या विनाशकारी क्यूँ मानते हैं” ?
माँ का कोई भी रूप अहितकर होता ही नहीं है ,महोदधि तन्त्र मैं कहा जाता है की देवी धूमावती महा विधा हर प्रकार की दरिद्रता नाश के लिए ,तन्त्र मंत्र , जादू टोना , बुरी नजर , भुत,प्रेत , सभी का समन के लिए भय से मुक्ति के लिए , सभी रोग शोक समाप्ति के लिए , अभय प्राप्ति के लिए , जीवन की सुरक्षा के लिए , तंत्र बांधा मुक्ति , शत्रु को जाड मूल से समाप्त करने के लिए धूमावती साधना वरदान है कलयुग में देवी धूमावती के बारे मैं कहा जाता है , यह जन्म से ले कर मृत्यु तक साधक की देख भाल करने वाली सातम महाविधा है , वेदों के काल की विवेचना से पता चलता है की महा प्रलय काल के समय ये मैजूद रहती है उन का रंग महा
प्रलय काल के बदलो जेसा ही है ,जब ब्रम्हांड की उम्र ख़त्म हो जाती है , काल समाप्त हो जाता है तो और स्वय महाकाल शिव भी अंतर्ध्यान हो जाते है ,तब भी माँ धूमावती आकेली खाड़ी रहती है,और
काल अन्तरिक्ष से परे काल की शक्ति को जताती है | उस समय न तो धरती, न ही सूरज , चाँद , सितारे , रहते है , रहता है .तो सिर्फ धुआं और राख, - वही चार्म ज्ञान है |, निराकार - न अच्छा , न बुरा , न शुद्ध , न अशुद्ध , न शुभ , न ही अशुभ धुएं के रूप में अकेली माँ धूमावती रह जाती है है , सभी उन का साथ छोड़ जाते है , एस लिए अल्प जानकारी रखने वाले , अशुभ मानते है l
धूमावती रहस्य तंत्र
यही उन का रहस्य है की वो वास्तविकता को दिखाती है , सदेव कडवी ,रुखी होती है है , एस लिए अशुभ लगती है , आपने साधको को सांसरिक बन्धनों ,से आजाद करती है , सांसरिक मोह माया से मुक्ति
विरक्ति दिलाती है , जिस से यह विरक्ति का भाव उन के साधको को अन्य लोगो से अलग थलग रखता है ,एकांत वश करने को प्रेरित करती है', महाविद्याओं का कोई भी रूप...फिर वो चाहे महाकाली हों,तारा हों या कमला हों...अपने आप में पूर्ण होता है | ये सभी उसी परा शक्ति आद्यशक्ति के ही तो विभिन्न रूप हैं,जब वो स्वयं अपनी कल्पना मात्र से इस सृष्टि का सृजन,पालन और संहार कर सकती हैं तो उसी परम पूर्ण के ये महाविद्या रुपी रूप कैसे अपूर्ण होंगे | इनमे भी तो निश्चित ही वही विशिष्टता होंगी ही ना |”
महाविद्याओं के पृथक पृथक १० रूपों को उनके जिन गुणों के कारण पूजा जाता है ,वास्तव में वो उन्हें सामान्य ना होने देने की गुप्तता ही है,जो पुरातन काल से सिद्धों और साधकों की परंपरा में चलती चली आई है | जब कोई साधक गुरु के संरक्षण में पूर्ण समर्पण के साथ साधना के लिए जाता है तो परीक्षा के बाद उसे इन शक्तियों की ब्रह्माण्डीयता से परिचित कराया जाता है और तब सभी कुंजियाँ उसके हाथ में सौंप दी जाती हैं और तभी उसे ज्ञात होता है की सभी महाविद्याएं सर्व गुणों से परिपूर्ण है और वे अपने साधक को सब कुछ देने का सामर्थ्य रखती हैं अर्थात यदि माँ कमला धन प्रदान करने वाली शक्ति के रूप में साध्य हैं तो उनके कई गोपनीय रूप शत्रु मर्दन और ज्ञान से आपूरित करने वाले भी हैं | अब ये तो गुरु पर निर्भर करता है की वो कब इन तथ्यों को अपने शिष्य को सौंपता है और ये शिष्य पर है की वो अपने समर्पण से कैसे सद्गुरु के ह्रदय
को जीतकर उनसे इन कुंजियों को प्राप्त करता है |
वास्तव में सत,रज और तम गुणों से युक्त ध्यान, दिशा, वस्त्र, काल और विधि पर ही उस शक्तियों के गुण परिवर्तन की क्रिया आधारित होती है | किसी भी महाविद्या को पूर्ण रूप से सिद्ध कर लेने के लिए साधक को एक अलग ही जीवन चर्या,आहार विहार और खान-पान का आश्रय लेना पड़ता है....किन्तु जहाँ मात्र उनकी कृपा प्राप्त करनी हो तो ये नियम थोड़े सरल हो जाते हैं और ये हम सब जानते हैं की विगलित कंठ से माँ को पुकारने पर वो आती ही हैं |
माँ धूमावती के साथ भी ऐसा ही है,जन सामान्य या सामान्य साधक उन्हें मात्र अलक्ष्मी और विनाश की देवी ही मानते हैं | किन्तु जिनकी प्रज्ञा का जागरण हुआ हो वो जानते हैं की आखिर इस महाविद्या का बाह्य परिवेश यदि इतना वृद्ध बनाया गया है तो क्या वो वृद्ध दादी या नानी माँ का परिवेश उन्ही वात्सल्यता से युक्त ना होगा | धूमावती सौभाग्यदात्री कल्प एक ऐसा ही प्रयोग है जिसे मात्र धूमावती दिवस,जयंती या किसी भी रविवार को एक दिन करने पर ही ना सिर्फ जीवन में पूर्ण अनुकूलता प्राप्त हो जाती है अपितु. .शत्रुओं से मुक्ति,आर्थिक उन्नति,कार्य क्षेत्र में सफलता, प्रभावकारी व्यक्तित्व और
कुण्डलिनी जागरण जैसे लाभ भी प्राप्त होते हैं |
विनाश और संहार के कथनों से परे ये गुण भी हम इन्ही की साधना से स्पष्ट रूप से देख सकते हैं | ये साधना रात्री में ही १० बजे के बाद की जाती है | स्नान कर बगैर तौलिए से शरीर पोछे ९ या तो वैसे ही शरीर को सुखा लिया जाये या धोती के ऊपर धारण किये जाने वाले अंग वस्त्र से हलके हल्के शरीर सुखा लिया जाये और साधना के निमित्त सफ़ेद वस्त्र या बहुत हल्का पीला वस्त्र धारण कर लिया
जाये | ऊपर का अंगवस्त्र भी सफ़ेद या हल्का पीला ही होगा..धोती और अंगवस्त्र के अतिरिक्त कोई अंतर्वस्त्र प्रयोग नहीं किया जाये | साधक-साधिका दोनों के लिए यही नियम है,महिला ऊपर साडी के रंग का ही ब्लाउज पहन सकती हैं | आसन
सफ़ेद होगा.. दिशा दक्षिण होगी | गुरु व गणपति पूजन के बाद एक पृथक बाजोट पर सफ़ेद वस्त्र बिछाकर एक लोहे या स्टील के पात्र में “धूं” का अंकन काजल से करके उसके ऊपर एक सुपारी स्थापित कर दी जाए और हाथ जोड़कर निम्न ध्यान मंत्र का ११ बार उच्चारण करे –
धूम्रा मतिव सतिव पूर्णात सा सायुग्मे |
सौभाग्यदात्री सदैव करुणामयि: ||
इसके बाद उस सुपारी को माँ धूमावती का रूप मानते हुए,अक्षत,काजल,भस्म,काली मिर्च और तेल के दीपक से और उबाली हुयी उडद और फल का नैवेद्य द्वारा
उनका पूजन करे, तत्पश्चात उस पात्र के दाहिने अर्थात अपने बायीं और एक मिटटी या लोहे का छोटा पात्र स्थापित कर उसमे सफ़ेद तिलों की ढेरी बनाकर उसके ऊपर एक दूसरी सुपारी स्थापित करे,और
निम्न ध्यान मंत्र का ५ बार उच्चारण करते हुए माँ धूमावती के भैरव अघोर रूद्र का ध्यान करे –
त्रिपाद हस्त नयनं नीलांजनं चयोपमं,
शूलासि सूची हस्तं च घोर दंष्ट्राटट् हासिनम् ||
और उस सुपारी का पूजन,तिल,अक्षत,धूप-दीप तथा गुड़ से करे तथा काले तिल डालते हुए ‘ॐ अघोर रुद्राय नमः’ मंत्र का २१ बार उच्चारण करे | इसके बाद बाए
हाथ में जल लेकर दाहिने हाथ से निम्न मंत्र का ५ बार उच्चारण करते हुए पूरे शरीर पर छिडके –
धूमावती मुखं पातु धूं धूं स्वाहास्वरूपिणी |
ललाटे विजया पातु मालिनी नित्यसुन्दरी ||
कल्याणी ह्रदयपातु हसरीं नाभि देशके |
सर्वांग पातु देवेशी निष्कला भगमालिना ||
सुपुण्यं कवचं दिव्यं यः पठेदभक्ति संयुतः |
सौभाग्यमयतं प्राप्य जाते देवितुरं ययौ ||
इसके बाद जिस थाली में माँ धूमावती की स्थापना की थी,उस सुपारी को अक्षत और काली मिर्च मिलकर निम्न मंत्र की आवृत्ति ११ बार कीजिये अर्थात क्रम से हर मंत्र ११-११ बार बोलते हुए अक्षत मिश्रित काली मिर्च डालते रहे |
ॐ भद्रकाल्यै नमः
ॐ महाकाल्यै नमः
ॐ डमरूवाद्यकारिणीदेव्यै नमः
ॐ स्फारितनयनादेव्यै नमः
ॐ कटंकितहासिन्यै नमः
ॐ धूमावत्यै नमः
ॐ जगतकर्त्री नमः
ॐ शूर्पहस्तायै नमः
इसके बाद निम्न मंत्र का जप रुद्राक्ष माला से २१,५१ , १२५ माला करें, यथासंभव एक बार में ही ये जप हो सके तो अतिउत्तम,अब मंत्र जाप प्रारंभ करे.
मंत्र:-
ॐ धूं धूं धूमावत्यै फट् ||
OM DHOOM DHOOM DHOOMAVATYAI PHAT ||
मंत्र जप के बाद मिटटी या लोहे के हवन कुंड में लकड़ी जलाकर १०८ बार घी व काली मिर्च के द्वारा आहुति डाल दें | आहुति के दौरान ही आपको आपके आस पास एक तीव्रता का अनुभव हो सकता है
और पूर्णाहुति के साथ अचानक मानो सब कुछ शांत हो जाता है...
इसके बाद आप पुनः स्नान कर ही सोने के लिए जाए और दुसरे दिन सुबह आप सभी सामग्री को बाजोट पर बीछे वस्त्र के साथ ही विसर्जित कर दें और जप माला को कम से कम २४ घंटे नमक मिश्रित जल में डुबाकर रखे और फिर साफ़ जल से धोकर और उसका पूजन कर अन्य कार्यों में प्रयोग करें | इस प्रयोग को करने पर स्वयं ही अनुभव हो जाएगा की आपने किया क्या है,कैसे परिस्थितियाँ आपके अनुकूल हो जाती है ये तो स्वयं अनुभव करने वाली
बात है....
देवी धूमावती को आज तक कोई योद्धा युद्ध में नहीं परास्त कर पाया, तभी देवी का कोई संगी नहीं हैं।
आदेश.