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10 Oct 2015

गुरूदीक्षा-(नाथसांप्रदाय).

गुरू की कृपा और शिष्य की श्रद्धा रूपी दो
पवित्र धाराओं का संगम ही दीक्षा है। यानी गुरू के आत्मदान और शिष्य के आत्मसमर्पण के मेल से ही दीक्षा संपन्न होती है। दीक्षा के संबंध में गुरूगीता में लिखा है-

गुरूमंत्रो मुखे यस्य तस्य सिद्धयन्ति नान्यथा।
दीक्षया सर्वकर्मामिण सिद्धयन्ति गुरूपुत्रके।।
   
                                               -गुरूगीता.

अर्थात् जिसके मुख में गुरूमंत्र है, उसके सब कर्म सिद्ध होते हैं, दूसरे के नहीं। दीक्षा के कारण शिष्य के सर्वकार्य सिद्ध हो जाते हैं। गुरूदीक्षा एक सूक्ष्म आध्यात्मिक प्रयोग है। दीक्षा में शिष्यरूपी सामान्य पौधे पर गुरूरूपी श्रेष्ठ पौधे की कलम (टहनी) प्राणानुदान के रूप में स्थापित कर शिष्य को अनुपम लाभ पहुंचाया जाता है। कलम की रक्षा करके उसे विकसित करने के लिए
शिष्य को पुरूषार्थ करना पडता है। गुरू की सेवा के लिए शिष्य को अपने समय, प्रभाव, ज्ञान, पुरूषार्थ एवं अंश उनके सान्निध्य में रहने हेतु लगाना आवश्यक होता है। शिष्य अपनी श्रद्धा और संकल्प के सहारे गुरू के समर्थ व्यक्तित्व के साथ
जुडता है। उधर गुरू को दीक्षा में अपना तप, पुण्य और प्राण यानी शक्तियां और सिद्धियां शिष्य को हस्तांतरति करनी पडती हैं और वह सत्प्रयोजनों के लिए शिष्य से श्रद्धा, विश्वास, समयदान, अंशदान की अपेक्षा करता है। इस प्रकार दीक्षा का अंतरंग संबंध गुरू और शिष्य के
मध्य होता है। एक पक्ष शिथिल पडेगा, तो दूसरे का श्रम व्यर्थ चला जाएगा यानी दीक्षा लेने वाले की भावना और समर्पण से ही दीक्षा फलीभूत होती है। अन्यथा ज्यादातर दीक्षाएं असफल हो जाती है। दीक्षा मंत्र बोलकर दी जाती है, तो उसे मांत्रिकदीक्षा कहते है। निगाहों से दी जाने वाली दीक्षा शांभवी और शिष्य के किसी केन्द्र का स्पर्श करके उसकी कुंडलिनी शक्ति जगाई जाती है, तो उसे स्पर्श-दीक्षा कहते है। गुरूमंत्र दीक्षा के द्वारा शिष्य की सुषुप्तशक्ति को जगाते हैं, चैतन्यशक्ति देते हैं,गुरू से प्राप्त सबीज मंत्र को श्रद्धा, विश्वासपूर्वक जपने से कम समय में ही शिष्य को सिद्धि प्राप्त होती है।
सभी शिष्यों, साधकों के लिए दीक्षा अनिवार्य होती है, क्योंकि दीक्षा साधना
का ही नहीं, जीवन का आवश्यक अंग है। जब तक दीक्षा नहीं होती, तब तक सिद्धि का मार्ग अवरूद्ध ही बना रहेगा। शास्त्रों में दीक्षा के बिना जीवन पशुतुल्य कहा गया है। गुरूदीक्षा का एक अंक ह्रदयलंभन भी है अर्थात् शिष्य के ह्रदयप्रदेश पर गुरू अपना हाथ रखकर मम व्रते ते ह्रदयं
दधमि आदि मंत्रोच्चारण करता हुआ, अपनी उपार्जित अध्यात्मशक्ति को शिष्य के ह्रदय में प्रविष्ट करता है।

गुरूदीक्षा का महत्व:-

गुरु के पास जो श्रेष्ठ ज्ञान होता है, वह अपने शिष्य को प्रदान करने और उस ज्ञान में उसे पूरी तरह से पारंगत करने की प्रक्रिया की गुरु दीक्षा कहलाती
है। गुरु दीक्षा गुरू की असीम कृपा और शिष्य की असीम श्रद्धा के संगम से ही सुलभ होती है। शास्त्रों में लिखा है- जैसे जिस व्यक्ति के मुख में गुरु मंत्र है, उसके सभी कार्य सहज ही सिद्ध हो जाते हैं। गुरु के कारण सर्वकार्य सिद्धि का मंत्र प्राप्त कर लेता है। आध्यात्मिकता में गुरु की आवश्यकता होती है | बिना किसी रास्ते के आप आध्यात्मिकता में सफल नहीं हो सकते हो | बिना गुरु के आप आध्यात्मिकता का रास्ता नहीं जान सकते हो | गुरु सभी आध्यात्मिकता में सफल हुए सभी लोगों के पास थे | गुरु का मतलब होता है :- ग का मतलब ज्ञान,उर का मतलब उर्जा,उ का मतलब उत्पन्न  मतलब ज्ञान-उर्जा को उत्पन्न करने वाला होता है गुरु | अगर आप किसी से मिलते हैं और उससे मिलने पर आप को लगता है की आपके अन्दर उर्जा का संचार हो रहा है और आप उसके साथ और समय बिताना चाहते हैं वह गुरु है | हम गुरु से दीक्षा लेते हैं,दीक्षा का मतलब होता है दमन करना इच्छाओं का, क्यूंकि आध्यात्मिकता में इच्छायेए सबसे बड़ी बाधक होती हैं | हम इन इच्छाओं
की उपेक्षा करना चाहते हैं परन्तु हम सही रास्ता नहीं जानते हैं,गुरु की सेवा करो तो ही ज्ञान मिलता है | किताबों से ज्ञान नहीं मिलता है | किताबों से तो जानकारी मिलती है  पर बिना गुरु सेवा के ज्ञान कहीं नहीं मिलता है | भगवान् श्रीकृष्ण ने
भी तो गुरु संदीपनी की सेवा की थी | भगवान् राम ने भी तो विश्वामित्र की की सेवा की थी | कर्ण ने भी तो परशुराम की सेवा की थी | असली ज्ञान तो सेवा से ही मिलता है | मोक्ष की साधना का पहला रास्ता और आखरी रास्ता गुरु जी के सेवा है | गुरु तो उस परम तत्त्व को जानते हैं और वही परम तत्त्व को जो जानता है वही परम तत्त्व हो जाता है | इसलिए गुरु और परमात्मा एक है दोनों में कोई भेद नहीं है | गुरु ही परमात्मा है और परमात्मा ही गुरु है | गुरु के साथ रहने से गुरु की सेवा करने से ही हम उस परमात्मा के पास होते हैं | गुरु का व्याख्यान मौन होता है  और शिष्य उसको समझ लेता है | गुरु के साथ-साथ रहने से वह भी एक दिन गुरु हो जाता है यही तो गुरु परम्परा है | किताबों के जानकारी लेकर और फिर उस पर गुमान करना कहाँ तक उचित है | वह तो
किसी और का ज्ञान है हमारा ज्ञान तो नहीं है  और उसने वह ज्ञान कैसे पाया पता नहीं तो फिर उसके ज्ञान को हम किस तरह प्रयोग कर रहे हैं और जरूरी नहीं की किताबों में जो ज्ञान है वह पूरा है | किताब से अगर सीखेंगे तो कभी भी मैंदान में नहीं
उतरेंगे | जबकि आध्यात्मिकता की शुरुवात है मैंदान में उतरने से शुरू होती है,आध्यात्मिकता बड़ी ही उल्टी होती है, इसमें किताबी ज्ञान नहीं इसमें तो शास्वत ज्ञान चाहिए |

गुरु दक्षिणा:-

जो दक्ष होता है उसी को दक्षिणा दी जाती है | दक्ष वह होता है जिसके पास अक्ष होता है | अक्ष वह होता है जो कभी क्षय नहीं होता है | क्षय जो नहीं होता है वह भगवान् है | भगवान् वह है जो ज्ञान वाला है | ज्ञान वाला केवल गुरु होता है | गुरु ही दक्ष होता है और उसी के पास अक्ष यानी आखें भी होती हैं | गुरु एक तरफ परमात्मा होता है और दूसरी तरफ शिष्य पर अक्ष यानी नज़र रखता है की शिष्य क्या कर रहा है ? क्यूंकि गुरु को उस शिष्य को भी तो दक्ष बनाना है | इस कार्य में गुरु दक्ष है इसलिए गुरु को शिष्य गुरु
दक्षिणा देता है |
शिष्य अपनी मर्जी से गुरूदक्षिणा समर्पित करते हुए गुरू से गुरूमंत्र दीक्षा प्राप्त कर सकता है l इसके लिये गुरू शिष्य से पहिले से ही नियोजित न्यौच्छावर राशी नही मांगता है क्युके यह कर्म गुरू के लिये पाप होता है जिसे ग्यान को बेचना कह सकते है  और जो गुरू येसा साहस करते है वह शास्त्र,उपनिषद और गुरूमंडल का अपमान करते है l उन्हे इस पाप कर्म का दंड मिलता है जिसके कारण उनके शिष्य हमेशा मंत्र साधना मे असफल होते है और गुरू से सदैव दुरी रखते है l येसे गुरूओ से दुर रहे जो सिर्फ स्वयम का पेट भरने हेतु शिष्यो के धन पर निर्भर रहेते है क्युके इसमे सबसे ज्यादा नुकसान शिष्य का होता है और वह येसे गुरू का त्याग करने के बाद अध्यात्मिक जीवन का आनंद उठाना बंद कर देता है l मंत्र-तन्त्रो को पाखंड मानकर हमेशा के लिये छोड देता है जिससे वह जिवन के समस्त प्रकार के सुखो का नाश कर देता है l
जो साधक/साधिका नाथ सांप्रदाय से प्रामानिकता के आधार पर गुरूदीक्षा ग्रहण करना चाहते है उनका "शाबर मंत्र विग्यान परिवार मे स्वागत है",जरुरी नही है के इससे पहिले आपने किसी अन्य गुरू से दीक्षा प्राप्त की हो तो आप नाथसांप्रदाय मे दीक्षा प्राप्त नही कर सकते हो,आप चाहे पहिले से किसी गुरू से दिक्षीत हो फिर भी नाथसांप्रदाय मे गुरूदीक्षा प्राप्त कर सकते है l यह सांप्रदाय गुरूशक्ती पर चलता है और इसमे सबसे ज्यादा गुरू का महत्व है lइस सांप्रदाय मे गुरूमंत्र का स्वरुप शाबर-गुरूमंत्र होता है जिसमे प्रचन्ड़ शक्ती होती है और जिससे प्रत्येक शाबर मंत्रो को सिद्ध करने की अदभुत क्षमता एवं चेतना प्राप्त होती है lजैसे ज्यादा तर शाबर मंत्रो मे लिखा होता है "ओम नमो आदेश गुरूजी को आदेश...... और ......मेरी भक्ती गुरू की शत्की" तो इससे समज मे आता है के शाबर मंत्र सिद्धी सफलता हेतु गुरू का महत्व सबसे ज्यादा होता है l
नाथसांप्रदाय मे शाबर-गुरूमंत्र दीक्षा ग्रहण करने हेतु सम्पर्क करे और जीवन को सही दिशा मे लेकर जाये,नाथसांप्रदाय प्राचीन सांप्रदाय है इसमे आपका कल्याण अवश्य ही होगा l


मेरी नाथ परंपरा:-

1. चैतन्य श्री आदिनाथ,

2. चैतन्य भगवान दत्तात्रेय,

3. चैतन्य श्री मच्छिंद्रनाथ,

4. चैतन्य श्री गोरक्षनाथ,

5. चैतन्य श्री गहनीनाथ,

6. चैतन्य श्री निवृत्तीनाथ,

7. चैतन्यश्री ज्ञाननाथ (ज्ञानेश्वर महाराज)
(1275 से 1296 ),

8. चैतन्य श्री सत्यमलनाथ(1296 से 1360),

9. चैतन्य श्री गुप्तनाथ (1360 से 1431),

10. चैतन्य श्री परमहंसजी(1431 से 1483),

11. चैतन्य श्री ब्रम्हानंद (1483 से 1552),

12. चैतन्य श्री परमानंद (1552 से 1635 )

13. चैतन्य श्री काशीनाथ (1635 से 1696 ),

14. चैतन्य श्री विठ्ठलनाथ (1696 से 1764 ),

15. चैतन्य श्री चंदननाथ(1764 से 1856),

16. चैतन्य श्री ब्रम्हनाथ (1856 से 1935 ),

17. चैतन्य श्री शम्भूनाथ(1935 से 2008),

18. चैतन्य श्री गोविंदनाथ.





आदेश......