यह अनुभूत सत्य है कि मन्त्रों में शक्ति होती है। परन्तु मन्त्रों की क्रमबद्धता, शुद्ध उच्चारण और प्रयोग का ज्ञान भी परम आवश्यक है। जिस प्रकार कई सुप्त व्यक्तियों में से जिस व्यक्ति के नाम का उच्चारण होता है, उसकी निद्रा भंग हो जाती है, अन्य सोते रहते हैं, उसी प्रकार शुद्ध उच्चारण से ही मन्त्र प्रभावशाली होते हैं और देवों को जाग्रत करते हैं।
क्रमबद्धता भी उपासना का महत्त्वपूर्ण भाग है। दैनिक जीवन में हमारी दिनचर्या में यदि कहीं व्यतिक्रम हो जाता है तो कितनी कठिनाई होती है, उसी प्रकार उपासना में भी व्यतिक्रम कठिनाई उत्पन्न कर सकता है।अतः उपासना-पद्धति में मंत्रों का शुद्ध उच्चारण तथा क्रमबद्ध प्रयोग करने से ही अर्थ चतुष्टय की प्राप्ति कर परम लक्ष्य-मोक्ष को प्राप्त किया जा सकता है।
आज का यह भौतिक युग विशुद्ध रूप से अर्थप्रधान बन गया है। अर्थाभाव (धन न होने पर) में जीवन कंटकाकीर्ण बन जाता है। मित्र किनारा कर जाते हैं। पत्नी के प्रेम में न्यूनता नजर आती है। भाई के प्रति अविश्वासी हो जाता है। जीवन नरक बन जाता है। बच्चों की शिक्षा रुक गई है, बेटी विवाह योग्य हो गई है, पिता मृत्यु के कगार पर है, दादी रोग से पीड़ित है। क्या करें ? कुछ समझ में नहीं आता।आपको घबराने की आवश्यकता नहीं। निराश न हो। मन्त्रों में गजब की शक्ति है। ईश्वर शक्तिमान है। मन्त्रों की महत्ता से इनकार नहीं किया जा सकता।
मैं मुक्तभोगी हूँ। पाठक से ही तो लेखक बना हूं। खूब घूमा हूं। खूब ठोकरें खाई हैं, दर-दर भटका हूं। हर छोटी बड़ी दुकान पर पहुंचा हूं, ढूंढ़ा कि कोई सर्वसामान्य के लाभ की चीज मिले पर विवश, निराश। अन्ततः यह आर्टीकल पुष्प आपको समर्पित है।
मंत्र शक्ति के भण्डार हैं। बड़ी अलौकिक शक्ति है यन्त्रों में, मन्त्रों में यह वह शक्ति है, जो मानव की सहज ही में इच्छापूर्ति में समर्थ है। वेदों से उद्भासित मन्त्र असत्य हो सकते हैं, ऐसा तो मूर्ख ही कहेगा, समझदार नहीं। वेद-वाक्य ब्रह्म वाक्य हैं। एक समय था, हर घर में वेद पाठ होता था। घर-घर में वेद ध्वनि गूंजती थी। वेद-मन्त्रों का उद्घोष होता था, घर का वातावरण पवित्र था। पवित्र भाव व विचार थे। भौतिक आवश्यकताएं न्यूनतम थीं। आडम्बर कहीं न था। छल-प्रपंच धोखा भी कहाँ था ? व्याभिचार, दुराचार, असत्य-भाषण लड़ाई-झगड़ा कहां था ? रोज-रोज की हायतोबा कहां थी ? सुखमय, ऐश्वर्यमय, कपट-रहित सदाचार युक्त पवित्र आनन्दमय पुण्य जीवन था। मनुष्य शतायु था, दीर्घायु था, बाप के जीते पुत्र की मृत्यु नहीं हो सकती थी। व्यभिचार का नाम भी न था।
कालान्तर में बाह्य यवनों का आक्रमण परस्पर की फूट व अत्याचारों के बाहुल्य ने जीवन नारकीय बना दिया। पाप-खण्ड बढ़ गया, भौतिक लिप्साएं सुरमा बन मुंह खोल बैठीं। मन्त्र-शक्ति का यान्त्रिक प्रभाव लुप्त हो गया। ईश्वर की शक्ति के प्रति अविश्वास बढ़ा, धार्मिक स्थल पापाचार के स्थल बन गए। देव विद्या ढोंगी लोगों का कार्य बन गयी। अश्रद्धा भाव में हम नाशोन्मुख हो गए।
मेरी जिज्ञासा ने जोर मारा। लुप्त ज्ञान को पुनजीर्वन देने की इच्छा हुई।श्री गुरु दत्तात्रेय जी ने उत्साह बढ़ाया, साथियों ने सहयोग दिया, और थोड़े समय में यथा शीघ्र कुछ लेख पाठकों को सौंपने का संकल्प ले बैठा।
मैं जानता हूं, इस युग की पैदावार इस युग में पले जीव इसे पढ़कर नाक-भौं सिकोड़ेंगे कटाक्ष करेंगे, आलोचना करेंगे। पर मैं उनसे मात्र इतना कहना चाहता हूं कि पहले परीक्षा करें, फिर आलोचना। मुझे प्रसन्नता होगी।
मन्त्रों में, यन्त्रों में शक्ति लुप्त नहीं हुई है। आवश्यकता है सद्गुरु की, खोजें और इच्छित वस्तु न मिले, मैं ऐसा नहीं मान सकता। प्रथम दीक्षा फिर शिक्षा। निर्दिष्ट मार्ग पर चलें, सफलता कदम चूमेगी।
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