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1 Dec 2015

तांत्रोत्क अष्टतारा साधना.

सर्व विघ्नों का नाश करने वाली महाविद्या तारा, स्वयं भगवान शिव को अपना स्तन दुग्ध पान करा, पीड़ा मुक्त करने वाली।

'आद्या शक्ति महा- काली' ने, हयग्रीव नमक दैत्य के वध हेतु नीला वर्ण धारण किया तथा वे उग्र तारा के नाम से जानी जाने लगी। ये शक्ति, प्रकाश बिंदु के रूप,आकाश के तारे की तरह स्वरूप में विद्यमान हैं, फलस्वरूप देवी तारा नाम से विख्यात हैं। आद्या शक्ति काली का ये स्वरूप सर्वदा मोक्ष प्रदान करने वाली तथा अपने भक्तों को समस्त प्रकार के घोर संकटो से मुक्ति प्रदान करने वाली हैं। देवी का घनिष्ठ सम्बन्ध मुक्ति से हैं, फिर वो जीवन और मरण रूपी चक्र हो या अन्य किसी प्रकार के संकट मुक्ति हेतु। भगवान शिव द्वारा, समुद्र मंथन के समय हलाहल विष का पान करने पर, उनके शारीरिक पीड़ा (जलन) के निवारण हेतु, इन्हीं देवी 'तारा' ने माता के स्वरूप मैं शिव को अपना अमृतमय दुग्ध स्तन पान कराया। फलस्वरूप, भगवान शिव को समस्त प्रकार शारीरिक पीड़ा से मुक्ति मिली, ये जगत जननी माता के रूप में तथा घोर से घोर संकटो कि मुक्ति हेतु प्रसिद्ध हुई। देवी के भैरव, हलाहल विष का पान करने वाले अक्षोभ्य शिव हुए, जिनको उन्होंने अपना दुग्ध स्तन पान कराया। जिस प्रकार इन महा शक्ति ने, शिव के शारीरक कष्ट का निवारण किया, वैसे ही ये देवी अपने उपासको के घोर कष्टो और संकट का निवारण करने मैं समर्थ हैं तथा करती हैं। मुख्यतः देवी की आराधना, साधना मोक्ष प्राप्त करने हेतु, वीरा चार या तांत्रिक पद्धति से की जाती हैं। संपूर्ण ब्रह्माण्ड में, जितना भी ज्ञान इधर उधर फैला हुआ हैं, वे सब इन्हीं देवी का स्वरूप ही हैं। देवी का निवास स्थान घोर महा श्मशान हैं, जहाँ सर्वदा चिता जलती रहती हो तथा ज्वलंत चिता के ऊपर, देवी नग्न अवस्था या बाघाम्बर पहन कर खड़ी हैं। देवी, नर खप्परों तथा हड्डीओं के मालाओं से अलंकृत हैं तथा सर्पो को आभूषण के रूप में धारण करती हैं। तीन नेत्रों वाली देवी उग्र तारा स्वरूप से अत्यंत ही भयानक प्रतीत होती हैं।





देवी तारा अपने मुख्य तीन स्वरूप से विख्यात हैं, उग्र तारा, नील सरस्वती तथा एक-जटा।

प्रथम 'उग्र तारा', अपने उग्र तथा भयानक रूप से जनि जाती हैं। देवी का यह स्वरूप अत्यंत उग्र तथा भयानक हैं, ज्वलंत चिता के ऊपर, शव रूपी शिव या चेतना हीन शिव के ऊपर, देवी प्रत्यालीढ़ मुद्रा में खड़ी हैं। उग्र तारा, तमो गुण सम्पन्न हैं। देवी उग्र तारा, अपने साधको, भक्तों को कठिन से कठिन परिस्थितियों में पथ प्रदर्शित तथा छुटकारा पाने में सहायता करती हैं।

द्वितीय 'नील सरस्वती, देवी इस स्वरुप में संपूर्ण ब्रह्माण्ड के समस्त ज्ञान कि ज्ञाता हैं। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में, जो भी ज्ञान ईधर-उधर बिखरा हुआ पड़ा हैं, उन सब को एकत्रित करने पर जिस ज्ञान की उत्पत्ति होती हैं, वे ये देवी नील सरस्वती ही हैं। इस स्वरूप में देवी राजसिक या रजो गुण सम्पन्न हैं। देवी परम ज्ञानी हैं, अपने असाधारण ज्ञान के परिणाम स्वरूप, ज्वलंत चिता के शव को शिव स्वरूप में परिवर्तित करने में समर्थ हैं।

एकजटा, देवी तारा के तीसरे स्वरूप न नाम हैं, पिंगल जटा जुट वाली ये देवी सत्व गुण सम्पन्न हैं तथा अपने भक्त को मोक्ष प्रदान करती हैं मोक्ष दात्री हैं। ज्वलंत चिता मैं सर्वप्रथम देवी तारा, उग्र तारा के रूप में खड़ी हैं, द्वितीय नील सरस्वती देवी शव को जीवित शिव बनाने में सक्षम हैं तथा तीसरे स्वरूप में देवी एकजटा जीवित शिव को अपने पिंगल जटा में धारण करती हैं या मोक्ष प्रदान करती हैं। देवी अपने भक्तों को मृत्युपरांत, अपनी जटाओं में विराजित अक्षोभ्य शिव के साथ स्थान प्रदान करती हैं या कहे तो मोक्ष प्रदान करती हैं।



देवी अन्य आठ स्वरूपों में 'अष्ट तारा' समूह का निर्माण करती है तथा जानी जाती हैं-

१. तारा
२. उग्र तारा
३. महोग्र तारा
४. वज्र तारा
५. नील तारा
६. सरस्वती
७. कामेश्वरी
८. भद्र काली

सभी स्वरूप गुण तथा स्वभाव से भिन्न भिन्न है तथा भक्तों की समस्त प्रकार के मनोकामनाओ को पूर्ण करने में समर्थ तथा सक्षम हैं।आज यहा आपको प्रथम बार अष्ट-तारा साधना सम्पन्न करने का अवसर प्राप्त हो रहा है।यह गोपनिय मंत्र साधना है जिससे माताराणी की शिघ्र क्रिपा प्राप्त होती है।यह साधना तिन चरणों मे किया जाता है और यहा आज प्रथम चरण प्रदान कर रहा हु।



साधना विधान:-

लाल आसन-वस्त्र जरुरी है,दिशा उत्तर,लाल रंग का माला होना चाहिये,साधना मंगलवार से प्रारंभ करना है।साधना 11 दिवसीय है,साधना सिर्फ रात्रिकालीन समय मे 9 बजे के बाद कर सकते है।मंत्र का नित्य 21 माला जाप करना जरुरी है।मंत्र जाप के समय जब तक जाप पुर्ण ना हो तब तक आसन से उठना नही चाहिये।किसी बाजोट पर लाल वस्त्र बिछाये और उस पर तारा जी का सुंदर चित्र स्थापित करना है।चित्र पर लाल रंग के फुलो का पुष्पमाला चढाये और किसी भी प्रकार के तेल का दिपक प्रज्वलित करे,स्वयं भी लाल रंग के कुम्कुम का तिलक करे और चित्र पर भी तिलक लगाने का महत्व है । पुजन के बाद अपनी इच्छानुसार मातारानी को अन्न का भोग चढाया जा सकता है। अब अपनी मनोकामना बोलकर एक पुष्प मातारानी के चरणों मे समर्पित करीये  और मंत्र जाप प्रारंभ करें।




मंत्र:-

।। ॐ ह्रीं  स्त्रीं अष्टतारायै कार्य सिद्धिम् हूं फट् स्वाहा ।।

(Om hreem streem ashtataaraayai kaarya siddhim hoom phat swaahaa)


 

एक घन्टे मे मंत्र जाप पुर्ण हो जायेगा परंतु मंत्र का जाप ध्यान से करीये ताकी उच्चारण मे कोइ गलती ना हो,11 दिन बाद आप चाहे तो मंत्र से हवन मे घी से आहुती दे सकते है।





आदेश.....